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________________ सप्तदशाध्ययनम् ] हिन्दी भाषाटीकासहितम् । [ ७० इसलिए संयमशील साधु को चाहिए कि वह यत्नपूर्वक और प्रमार्जन किये हुए वस्त्र पात्र आदि उपकरणों को अपने उपयोग में लावे | अब फिर इसी विषय का वर्णन करते हैं दवदवस्स चरई, पत्ते य अभिक्खणं । उल्लंघणे य चण्डे य, पावसमणि च ॥८॥ द्रुतं द्रुतं चरति, प्रमत्तश्चाभीक्ष्णम् उल्लंघनश्च चण्डश्च, पापभ्रमण इत्युच्यते ॥८॥ पदार्थान्वयः— दवदवस्स - शीघ्र शीघ्र चरई - - चलता है पत्ते - प्रमत्त होकर - फिर अभिक्खणं - बार बार उल्लंघणे - बालादि के ऊपर से लघ जाता है य-और चण्डे - क्रोद्ध से युक्त य- पादपूर्ति में है पावसमणि त्ति - पापश्रमण इस प्रकार बुच्च - कहा जाता है । मूलार्थ - जो शीघ्र शीघ्र चलता हो, प्रमत्त होकर बालादि के ऊपर से घ जाता हो और क्रोधी हो, वह पापश्रमण कहलाता है । टीका - जो साधु गोचरी आदि क्रियाओं में अति शीघ्रता से चलता है और प्रमादवश होकर वार वार बालकों के ऊपर से लँघ जाता है और यदि कोई शिक्षा देवे तो उस पर भी क्रोध करता है, वह पापश्रमण है अर्थात् ये लक्षण पापश्रमण के हैं । तात्पर्य कि ईर्यासमिति में अनुपयोगता, प्रमाद के वशीभूत होकर अनुचित उल्लंघनादि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनी तथा शिक्षा देने वाले पर क्रोध करना, ये सब अविनीतता के लक्षण हैं । इन्हीं लक्षणों से युक्त हुआ साधु पापश्रमण कहा जाता है । यहाँ पर जो "अभिक्खणं" पद पढ़ा गया है, उसका अभिप्राय यह है कि किसी कारण विशेष से यदि यत्नपूर्वक शीघ्र भी चलना पड़े तो वह प्रत्यवायजनक नहीं किन्तु सदैव विना विधि से चलना दोषावह है। 1 अब फिर उक्त विषय में ही कहते हैं— पत्ते, अवउज्झइ पायकम्बलं । पडिलेड पडिलेहाअणाउत्ते " पावसमणि त्ति वुच्चई ॥९॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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