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सप्तदशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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मूलार्थ – जो शिष्य अहंकारयुक्त होकर आचार्य और उपाध्याय की भली प्रकार से सेवा नहीं करता और न उनकी पूजा करता है, वह पापश्रमण कहा जाता है ।
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टीका -- ज्ञानाचार के पश्चात् अब सूत्रकार दर्शनाचार के विषय में कहते हैं । तात्पर्य कि दर्शनाचार के भेदों में एक गुरुवात्सल्य नाम का भेद है । जो शिष्य उसकी सम्यक् प्रकार से आराधना नहीं करता, वह पापश्रमण कहा जाता है । जैसे कि आचार्य और उपाध्याय आदि गुरुजनों की सेवा पूजा न करना, उनकी इच्छा के अनुसार उनके कार्यों में उपयोग न रखना तथा अर्हतादि के गुणानुवाद से पराङ्मुख रहना और अहंकारी होना ये सब पापश्रमण लक्षण हैं । इसी प्रकार दर्शनाचार के अन्य भेदों की अवहेलना के विषय में भी समझ लेना चाहिए ।
इस प्रकार दर्शनाचार को लेकर पापश्रमणता का वर्णन किया गया है। अब चारित्राचार के विषय में कहते हैं
सम्ममा पाणांणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्नमाणे, पावसमणि त्ति वुञ्चई ॥६॥ सम्मर्दयमानः प्राणिनः, बीजानि हरितानि च । असंयतः संयतंमन्यमानः, पापश्रमण इत्युच्यते ॥६॥
पदार्थान्वयः — सम्मद्दमाणे- संमर्दन करता हुआ पाणाणि - प्राणियों का या - बीजों - और हरियाणि - हरी का असंजए - असंयत होने पर भी संजयमन्नमाणे- संयत मानता हुआ पात्रसमणि त्ति - पाप श्रमण इस प्रकार बुच्च ई- - कहा जाता है ।
मूलार्थ - प्राणी, बीज और हरी का संमर्दन करता हुआ तथा असंयत होने पर भी अपने आपको संयत मानने वाला पापश्रमण कहा जाता है ।
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टीका - चारित्राचार में पहले ईर्यासमिति का प्रयोग किया जाता है । अतः सूत्रकर्ता ने प्रथम उसी का उल्लेख किया है । जैसे कि द्वीन्द्रियादि प्राणी, शाल्यादि बीज और दूर्वादि हरी । इसी प्रकार सर्व एकेन्द्रिय जीव जान लेने चाहिएँ । चलते समय इन सब का मर्दन करता हुआ जो चला जाता है और असंयत होता हुआ भी फिर
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