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पावसमणिज्जं सत्तदहं अज्भयां
अथ पापश्रमणीयं सप्तदशमध्ययनम्
गत सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य की गुप्तियों का वर्णन किया गया है परन्तु गुप्तियाँ उसी समय ठीक रह सकती हैं, जब कि पापस्थानों को छोड़ दिया जाय । अतः इस सोलहवें अध्ययन अनन्तर अब पोपश्रमण नामक सत्तरवें अध्ययन का आरम्भ किया जाता है, जिसकी आदिम गाथा इस प्रकार हैं
जे केइ उ पव्वइए नियण्ठे, धम्मं सुणित्ता विणओववन्ने ।
सुदुल्लाहं लहिउं बोहिलाभं,
विहरेज पच्छा य जहासुहं तु ॥१॥
यः कश्चित्तु प्रव्रजितो निर्मन्थः,
धर्मं श्रुत्वा सुदुर्लभं लब्ध्वा बोधिलाभं,
विनयोपपन्नः ।
विहरेत् पश्चाच्च यथासुखं तु ॥१॥
१ जो काम साधुओं के करने योग्य नहीं हैं, उन्हें करने वाले साधु को पापभ्रमण कहते हैं ।