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सप्तदशाध्ययनम् ] .. हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[ ७०३ पदार्थान्वयः-जे-जो केइ-कोई एक उ-पादपूरणे पव्यइए-प्रव्रजित नियण्ठेनिम्रन्थ धम्म-धर्म को सुणित्ता-सुनकर विणओववन्ने-विनय से युक्त सुदुल्लहं-अति दुर्लभ लहिउं-प्राप्त करके बोहिलाभं-बोधिलाभ को विहरेज-विचरता है पच्छापीछे से य-पुनः जहासुह-जैसे सुख हो तु-एव के अर्थ में है।
मूलार्थ-कोई एक प्रव्रजित निर्ग्रन्थ, धर्म को सुनकर विनय से युक्त अतिदुर्लभ बोधिलाभ को प्राप्त करके, पीछे से यथारुचि विचरता है अर्थात् खच्छन्दतापूर्वक जैसे सुख प्रतीत हो, वैसे चलता है।
टीका-कोई जीव, धर्म को सुनकर दीक्षा ग्रहण करके निर्ग्रन्थ बन गया और ज्ञान दर्शन चारित्र रूप विनय से भी युक्त हो गया तथा परम दुर्लभ बोधिलाभ [ जिनप्रणीत धर्म ] की प्राप्ति भी हो गई परन्तु पीछे से वह अपनी इच्छा के अनुसार वर्तने लगा अर्थात् शास्त्रविहित मर्यादा की उपेक्षा करके अपने को जैसे सुख हो उस प्रकार से आचरण करने लगा, तात्पर्य कि प्रथम सिंह की भाँति घर से निकलकर फिर शृगालं की वृत्ति को स्वीकार कर लिया । यहाँ पर 'सुदुल्लहं' इस वाक्य में 'सु' उपसर्ग अत्यंत अर्थ का वाचक है । क्योंकि संसारभ्रमण में प्रत्येक वस्तु सुलभता से प्राप्त हो सकती है परन्तु बोधिलाभ का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है । इस पर भी कितने एक जीव ऐसे हैं कि इस दुर्लभ बोधिलाभ के प्राप्त हो जाने पर भी उसका यथावत् संरक्षण नहीं करते अर्थात् संयम लेकर भी उसका आराधन नहीं करते किन्तु अकरणीय कार्यों में लग जाते हैं।
____ जब कोई एक साधु दीक्षित होकर यथारुचि विचरने लगा, तब गुरुओं ने उसको हित बुद्धि से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। इस पर शिष्य ने गुरु को जो उत्तर दिया है, अब उसका वर्णन करते हैं
सिजा दढा पाउरणं मि अत्थि,
उप्पजई भोत्तु तहेव पाउं । जाणामि जं वट्टइ आउसुत्ति,
किं नाम काहामि सुएण भन्ते ॥२॥