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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ षोडशाध्ययनम्
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एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण, सिज्झिस्सन्ति तहा वरे ॥१७॥ त्ति बेमि । इति बम्भचेरसमाहिठाणअज्झयणं समत्तं ॥ १६॥
एष धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो सिद्धाः सिध्यन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति इति ब्रवीमि ।
जिनदेशितः ।
तथा
परे ॥१७॥
इति ब्रह्मचर्य समाधिस्थानमध्ययनं समाप्तम् ॥ १६ ॥
पदार्थान्वयः–एस- यह धम्मे-धर्म धुवे - ध्रुव है निश्चे- नित्य है सासशाश्वत हैं जिणदेसिए - जिनप्रतिपादित है अरोग - इसके द्वारा सिद्धा- पहले सिद्ध हुए च-और सिज्यंति-वर्तमान में सिद्ध होते हैं सिज्झिस्संति - भविष्यकाल में सिद्ध होंगे तहा - तथा वरे - अनंत अनागत का में 1
मूलार्थ - जिनदेशित यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है । इसके द्वारा भूतकाल में सिद्ध हुए, वर्तमानकाल में होते हैं और आगामी काल में होंगे। टीका- इस गाथा में यह बतलाया गया है कि जिनेन्द्र भगवान् का प्रतिपादन किया हुआ यह ब्रह्मचर्य रूप धर्म ध्रुव है, नित्य है और शाश्वत है । ध्रुव इसलिए है कि इसको परवादियों ने भी स्वीकार किया है । नित्य इसलिए है कि यह द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सदैव एक स्वभाव होने से स्थिर है और शाश्वत इसको इस वास्ते कहते हैं कि पर्यार्थिक नय की अपेक्षा से भी इसका पर्याय – परिवर्तन नहीं होता तथा भिन्न भिन्न पर्यायों का धारण करने वाला है ।
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यद्यपि ध्रुव, नित्य और शाश्वत ये तीनों शब्द समान अर्थ के वाचक हैं तथापि नाना प्रकार के शिष्यों के हित और सुगमता से बोध के लिए इनका यहाँ पर प्रयोग किया है । इसके अतिरिक्त शास्त्रकार इस धर्म का त्रैकालिक फल बतलाते हुए कहते