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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[षोडशाध्ययनम्
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अन्तिम फल, धर्म से पतित होना बतलाया ही गया है । तथा जैसे यह उपदेश ब्रह्मचारी पुरुष के लिए है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य में पूर्णनिष्ठा रखने वाली स्त्री के लिए भी समझ लेना चाहिए।
इन उक्त दोषों का परित्याग कर देने के बाद ब्रह्मचारी साधु का जो कर्तव्य है, अब उसके विषय में कहते हैं
धम्माराम चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही। धम्मारामरते दन्ते, बम्भचेरसमाहिए ॥१५॥ धर्माराम चरेद् भिक्षुः, धृतिमान् धर्मसारथिः। ... धर्मारामे रतो दान्तः, ब्रह्मचर्यसमाहितः ॥१५॥
पदार्थान्वयः-धम्मारामे-धर्म के आराम में बगीचे में भिक्खु-भिक्षु चरे-विचरे धिइम-धृतिमान् धम्मसारही-धर्म का सारथि धम्मारामरते-धर्म में रत दन्ते-दान्त–इन्द्रियों का दमन करने वाला बम्भचेर-ब्रह्मचर्य में समाहिएसमाहितचित्त-समाधि वाला।
__मूलार्थ-फिर ब्रह्मचर्य में समाहित, धैर्यशील, धर्मसारथि, धर्म में अनुराग रखने वाला और दान्त-इन्द्रियों को दमन करने वाला-भिक्षु धर्म के आराम-बगीचे में विचरे।
टीका-जिस प्रकार संतप्तहृदय प्राणियों के सन्ताप को दूर करने वाला आराम होता है, ठीक उसी प्रकार इस संसार में दुष्कर्मसंतप्त जीवों को शांति प्राप्त करने के लिए धर्मरूप आराम है। उसी में समाहितचित्त, उपशान्त, धैर्यशील, धर्मसारथि
और धर्मानुरागी बनता हुआ संयमशील भिक्षु विचरण करे । तात्पर्य कि धर्माराम में रमण करने वाले को परमशांति की प्राप्ति होती है। वही धर्मसारथि बनकर अनेक भव्य जीवों को सन्मार्ग पर लाता हुआ उनको संसार के जन्म-मरण रूप अगाध समुद्र से पार कर देता है। इसी प्रकार उपशान्त होकर धर्म का अनुरागी बनता हुआ ब्रह्मचर्य की समाधि वाला होवे।
यह सब वर्णन ब्रह्मचर्य की रक्षा अथच विशुद्धि के लिए किया गया है। अब ब्रह्मचर्य के माहात्म्य के विषय में कहते हैं