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षोडशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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दशस्थान—ब्रह्मचर्य के विघातक हैं । अत: ब्रह्मचर्य में अनुराग रखने वाले साधु को इनका किसी समय में भी संसर्ग नहीं करना चाहिए । यहाँ पर सूत्रकार ने जो तालपुट विष का उल्लेख किया है, उसका अभिप्राय यह है कि उक्त विष बड़ा ही उग्र होता है । यहाँ तक कि होठों के भीतर जाते ही वह मनुष्य को मार देता है । यदि समय का ख़याल करें तो जितना समय तालवृक्ष से उसके फल के गिरने में लगता है, उतना समय उक्त विषको प्राणी के प्राणों को हरने में लगता है। तथा जिस प्रकार यह तालपुटविष प्राणों - जीवन - का संहारक है, उसी प्रकार ये पूर्वोक्त दश स्थान संयमरूप जीवन के विघातक हैं । इसलिए संयमशील ब्रह्मचारी पुरुष इनका कभी भी सेवन न करे, इसी में उसका श्रेय हैं ।
इस पूर्वोक्त कथन से यह सिद्ध हुआ कि इन दुर्जय कामभोगों का ब्रह्मचारी पुरुष सर्वथा त्याग कर देवे । अब इसी बात का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार कहते हैं
दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥
दुर्जयान् कामभोगाँश्च नित्यशः परिवर्जयेत् । शङ्कास्थानानि सर्वाणि वर्जयेत् प्रणिधानवान् ॥१४॥
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पदार्थान्वय: – दुज्जए-दुर्जय कामभोगे - कामभोगों को य- पादपूर्ति में निच्चसो- सदा ही परिवञ्जए - त्याग देवे संकाठाणानि - शंका के स्थान सव्वाणिसब वजेञ्जा- - त्याग देवे पणिहाणवं - एकाग्र मन वाला ।
मूलार्थ – इसलिए एकाग्रमन वाला साधु, दुर्जय कामभोगों और सर्व प्रकार के शंका स्थानों का सदा के लिए परित्याग कर देवे ।
टीका – जब कि ये कामभोगादि विषय तालपुट विष के समान हैं तो इनका त्याग करना ही कल्याण के देने वाला है । इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि एकाग्र मन वाला साधु समाधि की दृढ़ता के लिए इन दुर्जय — दुःखपूर्वक जीते जाने वालेकामभोगों को तथा शंका के स्थानों को ( जहाँ पर कि शंका उत्पन्न होती हो ) छोड़ देवे । क्योंकि शंकास्थान ही ब्रह्मचर्य में शंका प्रभृति दोषों के उत्पादक हैं । और इनका