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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ षोडशाध्ययनम्
की स्मृति इत्यादि ये क्रियाएँ ब्रह्मचारी के लिए लाभप्रद नहीं हैं । सूत्रकर्ता ने जो "भुत्तासियाणि " यह पद दिया है, इसके दोनों अर्थ लिये जा सकते हैं। जैसे कि एक तो स्त्रियों के साथ बैठना वा बैठकर खाना, दूसरा विषय सेवन करना । ये स्मृतियाँ ब्रह्मचारी के लिए अत्यन्त हानिप्रद हैं तथा इस पद यह भी भली भाँति सिद्ध हो जाता है कि पूर्वकाल में पति-पत्नी एकत्र बैठकर भोजनादि भी करते थे । इसी लिए सूत्रकार ने इसकी स्मृति करने का निषेध किया है । गाथा के प्रत्येक पद जो कामोत्पादक थे, उनके प्रतिकूल वैराग्योपादक अर्थ में लिये गये हैं। इनका ठीक ज्ञान स्वानुभव से ही हो सकता है ।
गत्तभूसणमिटुं च कामभोगा य दुखया ।
नरस्सत्तगवेसिस्स
गात्रभूषणमिष्टं नरस्यात्मगवेषिणः
विसं तालउडं जहा ॥ १३ ॥
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च, कामभोगाश्च दुर्जयाः ।
विषं तालपुटं यथा ॥१३॥
"
पदार्थान्वयः—गत्त-शरीर का भूसणं- शृङ्गार च - और इटुं - इष्टपना य-पुनः कामभोगा - शब्दादि विषय, जो दुञ्जया - दुर्जय हैं अत्तगर्वेसिस्स - आत्मगवेषी नरस्त - नर को विसं - विष तालउड - तालपुट जहा - जैसे हैं ।
मूलार्थ - शरीर का शृङ्गार और इष्टपना तथा दुर्जय काम भोग शब्दादि विषय, ये आत्मगवेषी पुरुष को तालपुट विष के समान त्याज्य हैं ।
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टीका - इन तीनों गाथाओं में पूर्वोक्त सभी गाथाओं के भाव को संकलित कर दिया गया है । स्त्रीजनाकीर्ण स्थान से लेकर दुर्जय कामभोगों तक जितने भी विषय निर्दिष्ट किये गये हैं ( जो कि संख्या में दस होते हैं ), वे सब आत्मा की गवेषणा करने वाले पुरुष के लिए तालपुट विष - अत्युग्र — शीघ्र मारने वालेके समान हैं अर्थात् जैसे जीवन की इच्छा रखने वाला कोई भी पुरुष विष का ग्रहण नहीं करता किन्तु उससे सर्वथा अलग रहता है, उसी प्रकार आत्मशुद्धि की आकांक्षा रखने वाला साधु इन पूर्वोक्त विषयों को विष के समान समझकर इनसे सर्वथा पृथक् रहे । तात्पर्य कि आत्मा की शुद्धि में ब्रह्मचर्य की नितान्त आवश्यकता है। बिना ब्रह्मचर्य के आत्मशुद्धि का होना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है और उक्त विषय-