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[ चतुर्दशाध्ययनम्
नमस्कार करके अपने घर में आ गये। घर में आने के अनन्तर उन दोनों कुमारों ने अपने माता-पिता आदि के साथ इसी दीक्षासम्बन्धी विषय का संवाद आरम्भ किया। कुछ दिनों के बाद ही उसका यह परिणाम निकला कि वहां का राजा, राणी, पुरोहित और उसकी स्त्री तथा वे दोनों कुमार ये छओं जीव दीक्षित होकर संयम की आराधना करने लगे । बस, प्रस्तुत अध्ययन में इसी परमार्थसाधक मनोरंजक विषय का वर्णन है, जिसकी आदिम गाथा
इस प्रकार है
उत्तराध्ययनसूत्रम्
देवा भवित्ताण पुरे भवम्मि, केई चुया एगविमाणवासी । पुरे पुराणे उसुयारनामे, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥१॥
देवा भूत्वा पूर्वे भवे
केचिच्च्युता एकविमानवासिनः । पुरे पुराण इषुकारनाम्नि,
ख्याते समृद्धे सुरलोकरम्ये ॥१॥
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पदार्थान्वयः – देवा – देवता भवित्ता - होकर पुरे - पूर्व भवम्मि - -भव में केई - कितने एक चुया - वहां से च्यव कर एगविमाणवासी - एक विमान में बसने वाले पुरे–नगर में जो पुराणे - प्राचीन था उसुयारनामे - इषुकार नाम वाले में खाए - ख्यात प्रसिद्ध समिद्धे - ऋद्धि से पूर्ण सुरलोयर म्मे-देवलोक के समान रमणीय गं - वाक्यालंकार में है ।
मूलार्थ - पूर्व भव में देवता होकर, फिर वहां से कितने एक व्यव कर जो एक विमान में बसने वाले थे, इषुकार नामक प्राचीन नगर में उत्पन्न हुए । वह नगर सुप्रसिद्ध, समृद्धियुक्त और देवलोक के समान रमणीय था ।