SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [५८१ टीका-पूर्व भव में, प्रथम देवलोक के नलिनी गुल्म विमान में बसने वाले कितने एक देवता वहां से च्यव कर इषुकार नाम के एक प्राचीन नगर में उत्पन्न हुए । वह नगर पृथिवी में अपने नाम से प्रख्यात और समृद्धि से परिपूर्ण होता हुआ देवलोक के समान अतिरमणीय था । इस काव्य में यह दिखलाया है कि मित्र देवता देवलोक से च्यव कर फिर मित्र रूप में उत्पन्न हुए तथा सम्प्रति काल में जीवों का जो परस्पर सम्बन्ध दिखाई देता है उसमें पूर्वजन्म के संस्कार भी अवश्य कारण होते हैं। और सूत्र में जो 'केई' पद दिया है उसका अभिप्राय, कितने एक अनिर्दिष्ट नाम वाले देवों के निर्देश करने का है। तथा 'सुरलोगरम्मे-सुरलोकरम्ये' इसमें मध्यमपदलोपी समास है। क्या वे देवता सर्वथा उपभुक्त होकर स्वर्ग से च्युत हुए थे अथवा शुभ कर्मों के शेष रहते हुए उनका च्यवन हुआ ? अब इसी विषय का निम्नलिखित गाथा में वर्णन किया जाता है सकम्मसेसेण पुराकएणं, ___कुलेसुदग्गेसु य ते पसूया । निविण्णसंसारभया जहाय, . जिणिंदमग्गं सरणं पवन्ना ॥२॥ स्वकर्मशेषेण पुराकृतेन, ___ कुलेषूदग्रेषु च ते प्रसूताः । निर्विण्णाः संसारभयात्त्यक्त्वा, जिनेन्द्रमार्ग शरणं प्रपन्नाः ॥२॥ १ इस गाथा में ब्राह्मण और क्षत्रिय इन दोनों कुलों का, प्रधान कुल के नाम से उल्लेख किया हुश्रा देखा जाता है जब कि अन्य शास्त्रों-दशाश्रुतस्कन्ध आदि में ब्राह्मण का भिक्षाग-भिक्षु कुल माना है, तथा इसकी प्रान्त कुलों-तुच्छ कुलों में परिगणना की है । अतः विद्वानों को इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy