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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ षोडशाध्ययनम्
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टीका - ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इस दशवें समाधि स्थान में इस बात की चर्चा की गई है कि ब्रह्मचारी भिक्षु शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श - इन पाँच प्रकार कामगुणों का सदा के लिए परित्याग कर देवे । क्योंकि ये पाँचों ही विषय कामदेव की वृद्धि में कारणभूत हैं अर्थात् कामदेव की उत्तेजना में सहायक हैं। जैसे कि— शब्द — मधुर स्वर और नृत्य आदि में कामवर्द्धक शब्दों का सुनना, रूप — कामदृष्टि से रूप का देखना, गन्ध — पुष्पमाला आदि का पहरना, रस- मधुर आदि रसों का सेवन करना, स्पर्श — कोमल स्पर्श का भोगना, इत्यादि कामगुणों के सेवन का ब्रह्मचारी पुरुष को निषेध है । इसके अतिरिक्त अपने आपको ब्रह्मचारी कहलाते हुए भी जो पुरुष इन विषयों का सेवन करते हैं, वे समाधि स्थान से अवश्य च्युत हो जाते हैं । अतः ब्रह्मचारियों को इनसे पूरे तौर पर सावधान रहना चाहिए ।
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अब प्रस्तुत विषय का ही दृष्टान्तपूर्वक फिर से वर्णन करते हैं । यथा—
आलओ थीजणाइण्णो, थीकहा य मणोरमा । संथवो चेव नारीणं, तासिं इन्दियदरिसणं ॥११॥ आलयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्त्रीकथा च मनोरमा । संस्तवचैव नारीणां तासामिन्द्रियदर्शनम् ॥ ११ ॥
पदार्थान्वयः - आलओ - स्थान थीज गाइएगो - स्त्रीजन से आकीर्ण य-और थीकहा- स्त्रीकथा मणोरमा - मन को आनन्द देने वाली संथवों-संस्तव च - और एव - अवधारणार्थ में है नारीणं नारियों से तासिं- उनकी इंदियदरिसणंइन्द्रियों का दर्शन ।
मूलार्थ - स्त्रीजन से श्राकीर्ण स्थान, स्त्रियों की मनोरम कथा, स्त्रियों से अधिक परिचय और उनकी इन्द्रियों का दर्शन; ये आत्मगवेषी पुरुष के लिए तालपुटविष के समान हैं (यह तीसरी गाथा के उत्तरार्द्ध के साथ सम्बन्ध होने से अर्थ होता है ) ।
टीका - इस गाथा में पूर्व कहे हुए समाधि स्थानों को अब एक एक पद में वर्णन करके दिखलाते हैं । जैसे कि-१ स्त्रीजन से आकीर्ण स्थान, २ खीकथा जो