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षोडशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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विभूषां परिवर्जयेत्, शरीरपरिमण्डनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, शृङ्गारार्थं न धारयेत् ॥९॥ ____पदार्थान्वयः-विभूसं-विभूषा को परिवजेजा-सर्व प्रकार से त्याग देवे सरीरपरिमण्डणं-शरीर का मंडन–अलंकार करना बम्भचेररओ-ब्रह्मचर्य में रत भिक्खू-भिक्षु सिंगारत्थं-शृङ्गार के लिए न धारए-न धारण करे ।
___ मूलार्थ-ब्रह्मचारी भिक्षु विभूषा और शरीर का मण्डन करना छोड़ देवे तथा शृङ्गार के लिए कोई भी काम न करे ।
टीका-इस गाथा में ब्रह्मचारी के लिए शरीर को विभूषित करने का निषेध किया गया है। ब्रह्मचर्य में अनुराग रखने वाला साधु शरीर की विभूषा को त्याग देवे अर्थात् शृङ्गार के निमित्त वस्त्रादि का उत्तम संस्कार करना और शरीर का मण्डन करना, केश श्मश्रु आदि का सँवारना छोड़ देवे । कारण कि शृङ्गार से मन में विकार के उत्पन्न होने की अधिक संभावना रहती है । अतः संयमशील भिक्षु को सर्व प्रकार से शरीर की भूषा और मंडन का त्याग कर देना चाहिए। इसलिए उक्त गाथा में 'परि' उपसर्ग का ग्रहण किया गया है।
अब दशम समाधि-स्थान के विषय में कहते हैंसद्दे रूवे य गन्धे य, रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥१०॥ शब्दान् रूपाँश्च गन्धाँश्च, रसान् स्पर्शास्तथैव च ।। .. पञ्चविधान् कामगुणान् , नित्यशः परिवर्जयेत् ॥१०॥ ___पदार्थान्वयः-सद्दे-शब्दों को य-और रूवे-रूपों को य-और गन्धे-गंधों को रसे-रसों को य-और फासे-स्पर्शों को तहेव-उसी प्रकार पंचविहे-पाँच प्रकार के कामगुणे-कामगुणों को निच्चसो-सदा के लिए परिवजए-त्याग देवे । ... मूलार्थ—इसी प्रकार शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणों को सदा के लिए छोड़ देवे । .... .