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उत्तराध्ययनसूत्रम्- .
[ षोडशाध्ययनम्
ब्रह्मचर्य में क्षति पहुँचती है । इसके साथ ही कामवर्द्धक-बलप्रद ओषधियों का निषेध भी समझ लेना।. .
अब आठवें समाधि-स्थान के विषय में कहते हैंधम्मलई मियं काले, जत्तत्थं पणिहाणवं। . नाइमत्तं तु भुंजिज्जा, बम्भचेररओ सया ॥॥
धर्मलब्धं मितं काले, यात्रार्थं प्रणिधानवान् । ' नाऽतिमात्रं तु भुञ्जीत, ब्रह्मचर्यरतः सदा ॥८॥ .
पदार्थान्वयः-धम्मलद्धं-धर्म से प्राप्त हुआ मियं-मित-स्वल्प काले-प्रस्ताव में जत्तत्थं-संयम यात्रा के लिए पणिहाणव-चित्त की स्वस्थता के साथ अइमत्तंप्रमाण से अधिक न भुंजिजा-न खावे बम्भचेररओ-ब्रह्मचर्य में रत सया-सदा ।
, मूलार्थ-ब्रह्मचारी पुरुष समय पर धर्म से प्राप्त हुआ स्तोकमात्र, संयम यात्रा के लिए, चित्त की स्वस्थता के साथ प्रमाण से अधिक भोजन न करे।
टीका-इस गाथा में ब्रह्मचारी के लिए प्रमाण से अधिक भोजन करने का निषेध किया गया है। धर्मयुक्त-आचारपूर्वक, एषणीय-निर्दोष आहार, जो कि गृहस्थ के घर से प्राप्त हुआ है, वह स्तोकमात्र और समय पर साधु को खाना चाहिए । किन्तु प्रमाण से अधिक आहार साधु न करे । प्रमाण से अधिक आहार करने पर कामाग्नि के प्रदीप्त होने तथा विसूचिका आदि रोगों के होने का भय रहता है । तथा उक्त निर्दोष आहार भी स्वस्थ चित्त से करना चाहिए, विपरीत इसके व्याकुल चित्त से किये गये आहार का परिणमन ठीक रूप में नहीं होता तथाच उससे समाधि की स्थिरता भी नहीं रहती। इसलिए संयमशील ब्रह्मचारी प्रमाण से अधिक आहार न करे। यदि गाथा के भाव को और भी संक्षेप में कहें तो इतना ही कह सकते हैं कि साधु को आगमोक्त विधि के अनुसार ही भोजन करना चाहिए। - अब नवम समाधि-स्थान का वर्णन करते हैं
विभूसं परिवज्जेज्जा, सरीरपरिमण्डणं ।. 'बम्भचेररओ भिक्खू, सिंगारत्थं न धारए ॥९॥