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________________ षोडशाध्ययनम् ] - हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [६६१ टीका-इस गाथा में त्रियों के साथ किये हुए हास्यादि का स्मरण व चिन्तन करना ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध बतलाया गया है। जैसे कि स्त्री के साथ हास्य किया हुआ, क्रीड़ा की हुई, प्रीति से बर्ताव किया हुआ तथा स्त्री के गर्व का नाश करने के लिए दर्प किया हुआ और साथ में बैठकर भोजन किया हुआ इत्यादि पूर्व बातों का ब्रह्मचारी पुरुष कदापि स्मरण-चिन्तन न करे । कारण कि इनके चिन्तन से मन में कामजन्य विकृति के पैदा होने की संभावना रहती है । इसलिए पूर्वानुभूत क्रीडा आदि का भिक्षु कदापि स्मरण न करे। वृत्ति में इस गाथा का दूसरा पाद इस प्रकार से देकर उसका निम्नलिखित अर्थ किया है । तथाहि "सहसावत्तासियाणि य–सहसाऽवत्रासितानि च । वृत्तिः–पराङ्मुखदयितादेः सपदि त्रासोत्पादकानि अक्षिस्थगनमर्मघट्टनादीनि।" अर्थात् स्त्री का अकस्मात् त्रास के कारण अक्षि आदि का ढाँपना तथा मर्मयुक्त वचनों का बोलना, इत्यादि पूर्वानुभूत बातों का स्मरण साधु न करे । तथा जो पुरुष अविवाहित ही भिक्षु हो गये हैं, उनको इन बातों की ओर ध्यान ही न देना चाहिए। ___ अब सातवें समाधि-स्थान के विषय में कहते हैंपणीयं भत्तपाणं च, खिप्पं मयविवडणं । बम्भचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ॥७॥ प्रणीतं भक्तपानं च, क्षिप्रं मदविवर्धनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, नित्यशः परिवर्जयेत् ॥७॥ ___ पदार्थान्वयः–पणीयं-प्रणीत भत्त-भात च-और पाणं-पानी खिप्पं-शीघ्र मयविवडणं-मद बढ़ाने वाला बम्भचेररो-ब्रह्मचर्य में रत भिक्खू-भिक्षु निच्चसोसदैव काल परिवजए-छोड़ देवे। मूलार्थ-स्निग्ध अन्न और पानी, जो कि शीघ्र ही मद को बढ़ाने वाला हो, ब्रह्मचर्य में रत-अनुरक्त-भिक्षु सदा के लिए ऐसे भोजन को त्याग देवे । टीका-जो आहार अति स्निग्ध और कामवासना को शीघ्र ही बढ़ाने वाला है, उसको ब्रह्मचारी साधु, कदापि ग्रहण न करे क्योंकि इससे साधु के
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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