SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [षोडशाध्ययनम् मूलार्थ-मन को आह्वाद देने वाली और काम तथा राग को बढ़ाने बाली स्त्रीकथा को ब्रह्मचर्यरत भिक्षु त्याग देवे ।। टीका- इस गाथा में कामवर्द्धक स्त्रीकथा का ब्रह्मचारी भिक्षु के लिए निषेध किया गया है । तात्पर्य कि जिस कथा से मन में वैकारिक आनन्द पैदा हो, काम में उत्तेजना बढ़े और राग की वृद्धि हो, ऐसी स्त्रीकथा को ब्रह्मचारी भिक्षु सदा के लिए त्याग देवे। किन्तु जिस कथा से राग की निवृत्ति और मन में वैराग्य की उत्पत्ति हो, यदि ऐसी स्त्रीकथा हो तो उसका निषेध नहीं । जैसे कि संवेगनी आदि कथाएँ हैं तथा सीता आदि सतियों की कथाएँ हैं। सारांश कि धर्मविवर्द्धक कथाओं के कहने में कोई आपत्ति नहीं। अब तीसरे समाधि-स्थान के विषय च अभिक्खणं । बम्भचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवजए ॥३॥ समं च संस्तवं स्त्रीभिः, संकथां . चाभीक्ष्णम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः, नित्यशः परिवर्जयेत् ॥३॥ पदार्थान्वयः-सम-साथ च-और संथवं-संस्तव थीहिं-स्त्रियों से च-और संकई-साथ बैठकर कथा करना अभिक्खणं-बारम्बार बम्भचेररओ-ब्रह्मचर्य में रत भिक्खू-भिक्षु निच्चसो-सदा ही परिवजए-छोड़ देवे। - मूलार्थ-स्त्रियों के संस्तव-अधिक परिचय और एक आसन पर बैठकर कथा करना ब्रह्मचर्य में रति-प्रीति रखने वाला भिक्षु सदा के लिए छोड़ देवे। टीका-त्रियों के साथ एक आसन पर बैठकर कथा करना तथा उनके साथ अधिक परिचय करना और पुनः पुनः उनके साथ सप्रेम संभाषण करना, इत्यादि बातों का ब्रह्मचारी भिक्षु सदा के लिए त्याग कर देवे । अन्यथा उसकी समाधि में विघ्न उपस्थित करने वाले पूर्वोक्त अनेक दोष उत्पन्न होंगे। तात्पर्य कि साधु ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त स्त्रियों का संसर्ग कभी न करे। अब चतुर्थ समाधि-स्थान के विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy