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षोडशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[६८९ अंगपच्चंगसंठाणं , चारुल्लवियपेहियं । बम्भचेररओथीणं, चक्खुगिज्झविवज्जए ॥४॥ अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानं , चारूल्लपितप्रेक्षितम् । ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां, चक्षुह्यं विवर्जयेत् ॥४॥
पदार्थान्वयः-अंग-मस्तक आदि अंग पच्चंग-प्रत्यंग-स्तन आदि संठाणंआकार विशेष वा कटि आदि चारु-सुन्दर लविय-बोलना पेहियं-देखना बम्भचेरब्रह्मचर्य में रओ-रत थीणं-स्त्रियों के चक्खुगिझ-चक्षुर्माह्य विषय विवजए-छोड़ देवे।
___ मूलार्थ-ब्रह्मचारी भिक्षु स्त्रियों के अंग प्रत्यंग और संस्थान आदि का निरीक्षण करना तथा उनके साथ सुचारु भाषण और कटाक्षपूर्वक देखना इत्यादि बातों को एवं चक्षुग्राह्य विषयों को त्याग देवे ।
टीका-प्रस्तुत गाथा में ,भिक्षु के लिए स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग आदि के निरीक्षण का तथा संभाषण और कटाक्षपूर्वक देखने का निषेध किया गया है। जैसे कि—स्त्रियों के मस्तक आदि अंग, कुच कक्षा आदि प्रत्यंग और कटिसंस्थानों का निरीक्षण करना एवं उनके साथ मनोहर भाषण तथा कटाक्षपूर्वक देखना इत्यादि बातों को और चक्षुग्राह्य विषयों को ब्रह्मचारी भिक्षु छोड़ देवे । यद्यपि रूप का स्वभाव आँखों में प्रवेश करना और आँखों का स्वभाव उसे ग्रहण करना है परन्तु उस पर किसी प्रकार का राग-द्वेष न करना, यही संयमशील आत्मा की दृढ़ता है। क्योंकि चक्षु इन्द्रिय रूप में प्रवेश न करे, ऐसा तो हो ही नहीं सकता किन्तु उस पर राग-द्वेष न करना, यही समाधि की स्थिरता का मूल कारण है। अपिच जो ब्रह्मचारी अपनी आँखों को कामरागवर्द्धक रूप को देखने से हटा नहीं सकता, उसकी समाधि कभी स्थिर नहीं रह सकती । अतः ब्रह्मचारी पुरुष को चाहिए कि वह अपनी आँखों को हर प्रकार से वश में रखने का प्रयत्न करे। __ अब पंचम समाधि-स्थान का वर्णन करते हैंकूइयं रुइयं गीयं, हसियं थणियकन्दियं ।। बम्भचेररओ थीणं, सोयगिझं विवज्जए ॥५॥