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उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ षोडशाध्ययनम्
टीका-इस सूत्र में निम्रन्थ के लिए शब्दादि विषयों के भोगोपभोग का निषेध किया है । तात्पर्य कि निम्रन्थ साधु, ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिएसुभाषितादि शब्द, चित्रगत स्त्री आदि का रूप, मधुराम्लादि रस, सुरभि गन्ध और सुकोमल स्पर्श, इनके भोगने वाला न होवे । क्योंकि ये पाँचों इन्द्रियों के पाँचों विषय समाधि में विघ्न करने वाले होते हैं। इन पाँचों विषयों से निवृत्त होने पर ही समाधि में स्थिरता हो सकती है। इसके विपरीत जो पुरुष इन विषयों का सेवन करते हैं, वे विभ्रमयुक्त होकर समाधि से पतित हो जाते हैं । इसलिए जो पदार्थ समाधि में विघ्न डालने वाला हो, उसका ब्रह्मचारी को अवश्यमेव त्याग कर देना चाहिए । इसके अतिरिक्त उक्त पाँचों विषयों का सेवन करने वाले उनके वशवर्ती होते हुए अपमृत्यु को भी प्राप्त हो सकते हैं। अत: इन पाँचों का त्याग करके समाधि में स्थित होना ही ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ का सब से प्रथम कर्तव्य है । यदि कोई कहे कि मन की दृढ़ता होने पर इन विषयों का सेवन भयावह नहीं हो सकता ? तो इसका समाधान यह है कि मन की चंचलता अपार है और सभी जीव समानकोटि के नहीं होते परन्तु यह उपदेश सर्वसाधारण के लिए है। अतः ब्रह्मचारी को इनका त्याग ही श्रेयस्कर है। .
हवन्ति य इत्थ सिलोगा । तं जहाभवन्ति चात्र श्लोकाः। तद्यथा
पदार्थान्वयः-हवंति–हैं य-और इत्थ-यहाँ पर सिलोगा-श्लोक । त जहा-जैसे कि
मूलार्थ--और यहाँ पर श्लोक भी हैं । जैसे कि
टीका-उक्त पाठ में यह बतलाया गया है कि ब्रह्मचर्य के इन दश समाधि स्थानों का प्रतिपादन करने वाले पद्यरूप श्लोक भी हैं। तात्पर्य कि प्रथम दश समाधि स्थानों का वर्णन गद्य में किया है और अब उनका वर्णन पद्यरूप में करते हैं। यद्यपि प्राकृत के पद्यों को गाथा और काव्य के नाम से कहा गया है तथापि मागधी भाषा में पद्यरूप समास को श्लोक भी कहते हैं।
अब उक्त प्रतिज्ञान के अनुसार वर्णन करते हैं । यथा--