SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Pre ६८४ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ षोडशाध्ययनम् प्रकार से शरीर को विभूषित करने वाला साधु स्त्रियों को प्यारा लगने लगता है। फिर वे-स्त्रीजन-जब उससे प्रेम करने लगते हैं तो उसके ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले नाना प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं । वह संयम का विराधक बनता हुआ धर्म से भी पतित हो जाता है। इसलिए ब्रह्मचारी पुरुष कभी विभूषा न करे । यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि प्रस्तुत गाथा में शरीर को विभूषित—अलंकृत करने का निषेध है किन्तु शौच का निषेध नहीं अर्थात् शरीर को पवित्र—साफ रखने का निषेध नहीं किया। इसलिए साधु की शरीरसम्बन्धी जितनी भी क्रिया है, वह सब शौच के निमित्त भले ही हो परन्तु विभूषा के लिए नहीं होनी चाहिए। जिस प्रकार चारित्रशील विधवा स्त्री शरीर की रक्षा करती है, उसे पवित्र रखती है किन्तु शृङ्गार की इच्छा उसके . मन में नहीं होती, उसी प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष शरीर को सुरक्षित अथच स्वस्थ रखने के लिए शौचादि कर्म करे किन्तु शृङ्गार के लिए न करे। तब ही उसकी समाधि स्थिर रह सकती है। कहा भी है— “उज्ज्वलवेषं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते” अर्थात् उज्ज्वल वेष रखने वाले पुरुष को स्त्री चाहती है। अतएव जो पुरुष शरीर को विभूषित करते हुए भी ब्रह्मचर्य रखने का साहस करते हैं, वे भूल करते हैं.। अब दशवें समाधि-स्थान के विषय में कहते हैं । यथा नो सदरूवरसगन्धफासाणुवादी हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे ? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु सहरूवरसगन्धफासाणुवादिस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो सहरूवरसगन्धफासाणुवादी भवेज्जा, से निग्गन्थे । दसमें बम्भचेरसमाहिठाणे हवइ ॥१०॥ .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy