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________________ ६८२] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [ षोडशाध्ययनम् PrvmM मूलार्थ-जो प्रमाण से अधिक पानी पीने वाला और भोजन करने वाला नहीं, वही निर्ग्रन्थ साधु है । ऐसा क्यों ? तब आचार्य कहते हैं कि प्रमाण से अधिक पानी पीने और भोजन करने से ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा, सन्देह के उत्पन्न होने की संभावना रहती है, संयम का नाश होता है, उन्माद की उत्पत्ति तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं केवलिप्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है । इसलिए निर्ग्रन्थ अतिमात्रा से पान और भोजन न करे। टीका-इस गाथा में निर्ग्रन्थ साधु को अधिक प्रमाण में भोजन करने का निषेध किया गया है । प्रमाण से अधिक किया हुआ भोजन रोग और विकृति का कारण होता है। इससे ब्रह्मचारी साधु के ब्रह्मचर्य में शंका आदि पूर्वोक्त दोषों की उत्पत्ति होती है। इसलिए ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को प्रमाण से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए । शास्त्रों में पुरुष के ३२, स्त्री के २८ और नपुंसक के २४ कवल–ग्रास लिखे हैं । इससे अधिक प्रमाण में साधु को भोजन नहीं करना चाहिए। अब नवम समाधि-स्थान की चर्चा करते हैं नो विभूसाणुवादी हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे ? आयरियाह-विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ । तओ णं तस्स इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, . केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवादी हविज्जा ॥९॥ ___ नो विभूषानुपाती भवति, स निर्ग्रन्थः । तत् कथमिति चेत् ? आचार्य आह-विभूषावर्तिको विभूषितशरीरः स्त्रीजनस्या
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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