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________________ ६८० ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ षोडशाध्ययनम् या पदार्थान्वयः-नो-नहीं पणीयं-प्रणीत आहार-आहार आहरिता-करने वाला हवइ-होवे से-वह निग्गन्थे-निम्रन्थ है । तं कहमिति चे-वह कैसे ? यदि इस प्रकार कहा जाय तो आयरियाह-आचार्य कहते हैं-निग्गन्थस्स-निम्रन्थ के खलु-निश्चय से पणीयं-प्रणीत आहार-आहार आहारेमाणस्स-करते हुए बम्भयारिस्स-ब्रह्मचारी के बम्भचेरे-ब्रह्मचर्य में संका-शंका कंखा-कांक्षा वा-अथवा विइगिच्छा-सन्देह समुप्पजिजा-उत्पन्न होवे भेदं-संयम का भेद वा-अथवा लभेजा-प्राप्त करे उम्मायं-उन्माद रोग को वा-अथवा पाउणिज्जा-प्राप्त करे वाअथवा दीहकालियं-दीर्घकालिक रोगायक-रोग का आतङ्क हवेजा-होवे केवलिपन्नताओ-केवलिप्रणीत धम्माओ-धर्म से भंसेजा-भ्रष्ट होवे। तम्हा-इसलिए खलु-निश्चय . से नो-नहीं निग्गन्थे-निर्ग्रन्थ पणीयं-प्रणीत आहार-आहार को आहारेजा-करे। मूलार्थ-जो साधु प्रणीत आहार करने वाला नहीं, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? इस पर आचार्य कहते हैं कि प्रणीत-स्निग्ध आहार करने से ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ के ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा के उत्पन्न होने की संभावना रहती है, संयम का नाश होता है; उन्माद की उत्पत्ति तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं केवलिप्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ प्रणीत आहार न करे। .. टीका-जो आहार गलद्विन्दु-अतिस्निग्ध है, वह पौष्टिक एवं धातुवर्द्धक होने से ब्रह्मचारी के ग्रहण करने योग्य नहीं क्योंकि उससे ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं होती किन्तु उसमें क्षति पहुँचती है तथा संयमविनाश आदि पूर्वोक्त दोषों के उत्पन्न होने की संभावना रहती है । अतः ब्रह्मचारी को स्निग्ध आहार का सेवन नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार अर्थात् भक्तपान की तरह खादिम और स्वादिम पदार्थों के विषय में भी जान लेना । तात्पर्य कि जिस आहार से इन्द्रियाँ प्रदीप्त होती हों और कामाग्नि प्रचंड होती हो, उस आहार को साधु न करे। . अब आठवें समाधि-स्थान के विषय में कहते हैं नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ, से निग्गन्थे । तं कहमिति चे ? आयरियाह-निग्गन्थस्स
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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