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षोडशाध्ययनम्
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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वह अपनी पहली अवस्था में स्त्री के साथ हुई रतिक्रीडा एवं भोग-विलासों का स्मरण न करे । ऐसा करने से उसके ब्रह्मचर्य में शंका, आकांक्षा, सन्देह आदि अनेक दोष उत्पन्न होने की संभावना रहती है, दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं परिणामस्वरूप वह केवलिप्रणीत धर्म से पतित हो जाता है। इसलिए विचारशील निर्ग्रन्थ को गृहस्थावस्था में सेवन किये गये कामभोगों का कदापि स्मरण न करना चाहिए । तथा विवाह से प्रथम ही दीक्षित होने वाले साधु को तो कामजन्य वार्ता का श्रवण करके उसके स्मरण करने का निषेध है, अर्थात् कुमार अवस्था से ही दीक्षित होने वाला साधु कामजन्य वार्ता को सुनकर उसका स्मरण कभी न करे । क्योंकि इस स्मरण से उसके ब्रह्मचर्य में पूर्व कहे दोषों के आगमन का ही भय है।
अब सातवें समाधि-स्थान का वर्णन करते हैं
नो पणीयं आहारं आहरित्ता हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे ? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु पणीयं आहारं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे पणीयं आहारं आहारेज्जा ॥७॥ __नो प्रणीतमाहारमाहर्ता भवेत् , स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह–निर्ग्रन्थस्य खलु प्रणीतमाहारमाहरतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शङ्का वा काङ्क्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातङ्को भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खल्लु नो निर्ग्रन्थः प्रणीतमाहरेत् ॥७॥