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________________ पदार्थान्वयः—पल्हत्थियं—पर्यस्तिका — जंघा के ऊपर वस्त्र वेष्टन रूप पाल, नेव–न, कुज्जा करे, च— तथा, पक्खपिंडं — दोनों भुजाओं को जंघाओं पर रखकर न बैठे, संजए—संयत, पाए— पांव, पसारिए – पसार करके, वा- अथवा, वि― और भी अविनयसूचक आसन आदि से, गुरुणन्तिए — गुरुओं के समीप, न चिट्ठे- -न बैठे । मूलार्थ -- शिष्य गुरुओं के समीप पर्यस्तिका - जंघा के ऊपर वस्त्र वेष्टन रूप पाल — करके न बैठे, अथवा अपनी दोनों भुजाओं को जांघों पर रखकर न बैठे तथा पांव पसार कर न बैठे और संयत शिष्य इसी प्रकार के और भी अविनय सूचक आसनादि से गुरुओं के निकट न बैठे । टीका - इस गाथा में शरीर के द्वारा होने वाले गुरुजनों के अविनय का दिग्दर्शन कराया गया है । शास्त्रकार शिष्यं की उन शारीरिक चेष्टाओं का निषेध करते हैं जिनके द्वारा गुरुजनों का अपमान सूचित हो, इसलिए शिष्य को अपने गुरुजनों के समक्ष पर्यस्तिका करके बैठने, भुजाओं से अपनी को वेष्टित करके बैठने और गुरुओं के आगे पैर फैलाकर बैठने आदि का निषेध किया गया है, क्योंकि ये सभी व्यापार गुरुजनों की अवज्ञा के सूचक हैं, अतः शिष्य को इन सब का परित्याग कर देना चाहिए। यहां पर इतना और भी स्मरण रखना चाहिए कि इस अशिष्ट व्यवहार का उपदेश केवल दीक्षित शिष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को गुरुजनों के समक्ष इस प्रकार के अशिष्ट व्यवहार का त्याग करना उचित है । यदि इस सारी गाथा के भाव का संक्षेप में वर्णन करें तो इतना ही है कि गुरुजनों के समीप जिस आसन से बैठने पर उनका अविनय सूचित हो और सभा आदि में जिस आसन के द्वारा अपनी अयोग्यता साबित हो, उस आसन का मुमुक्षु व्यक्ति परित्याग कर दे । यद्यपि योगाभ्यास में ध्यान-साधना के अनेक आसन हैं और उनमें उक्त प्रकार के (जिनका गुरुओं के समीप में निषेध किया गया है, आसन भी निर्दिष्ट किए गए हैं, परन्तु यह विषय अलग और एकान्त स्थान से सम्बन्ध रखता है, इसका गुरुजनों के समीप बैठने से कोई सम्बन्ध नहीं समझना चाहिए।' गुरुओं के समीप तो उसी आसन से बैठना चाहिए जो कि शास्त्र सम्मत और सभ्य व्यक्तियों द्वारा अनुमोदित हो तथा जिससे गुरुजनों की किसी तरह भी अवज्ञा न होने पाए । अब वाणी के द्वारा होने वाले अविनय का निषेध करते हुए कहते हैं— आयरिएहिं वाहित्तो, तुसिणीओ न कयाइवि । पसायपेही नियागट्ठी, उवचिट्ठे गुरुं सया ॥ २० ॥ आचार्यैर्व्याहृतः, तूष्णीको न कदापि च । प्रसादप्रेक्षी नियागार्थी, उपतिष्ठेद् गुरुं सदा ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः–आयरिएहिं — आचार्यों के द्वारा, वाहितो – बुलाया हुआ, तुसिणीओ —नवृत्ति श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 77 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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