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________________ बिना स्पर्श करना, उनके निजी उपकरणों की आशातना करना आदि कायिक अविनय कहलाता है । सारांश यह है कि शिष्य अपने गुरुजनों — आचार्यों के प्रतिकूल मन, वाणी और शरीर से ऐसा कोई भी आचरण न करे जिससे कि आचार्यों के मन में उसके प्रति किसी भी प्रकार का असद्भाव पैदा हो। गाथा में आये हुए 'बुद्ध' शब्द का अर्थ तत्त्ववेत्ता आचार्य और गुरु हैं, उनका अविनय कदापि न करना चाहिए । अब केवल कायिक अविनय का वर्णन करते हैं न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरुं, सयणे नो डिस्सु ॥ १८ ॥ न पक्षतो न पुरतः, नैव कृत्यानां पृष्ठतः । न युञ्जीतोरुणोरुं, शयने नो प्रतिशृणुयात् || १८ || पदार्थान्वयः– किच्चाणं – आचार्यों के, न–न, पक्खओ — पक्ष से – पार्श्व भाग से, न पुरओ-न आगे से, नेव-न ही, पिट्ठओ – पीठ करके बैठे, न जुंजे – न जोड़े, ऊरुणा-घुटने से, ऊरुं—घुटना, सयणे—शय्या में बैठा हुआ, नो पडिस्सुणे – गुरु के वाक्य को न सुने । मूलार्थ — आचार्यों के अवयवों के साथ अपने अवयव जोड़कर न बैठे, न आगे बैठे, न पीठ करके बैठे और न ही उनके घुटने के साथ घुटने जोड़ कर बैठे तथा शय्या में बैठा-बैठा ही उनकी वाणी को न सुने । टीका—क्योंकि आगे बैठने से गुरुजनों के वन्दनार्थ आने वालों को उनके दर्शन में बाधा पहुंचने की आशंका रहती है। गुरुजनों की ओर पीठ करके भी न बैठे, ऐसा करना तो प्रत्यक्ष ही अविनय है और आचार्यों के घुटने के साथ घुटना जोड़कर भी न बैठना चाहिए, क्योंकि इससे देखने वालों के मन में असद्भाव पैदा होने की सम्भावना रहती है और गुरुजनों के महत्त्व में भी न्यूनता आती है। इसके सिवाय अपनी शय्या में पड़े रहकर ही गुरुओं के वचन को सुनने और सुनकर उत्तर देने की चेष्टा न करे, किन्तु उनके वचनों को सुनकर उसी समय अपनी शय्या से उठे और गुरुजनों समीप आकर उनकी वाणी को सुने और बड़े विनीत भाव से उनके आदेश का पालन करे । अब इसी विषय में फिर कहते हैं नेव पल्हत्थियं कुज्जा, पक्खपिण्डं च संजए । पाए पसारिए वावि, न चिट्ठे गुरुणन्ति ॥ १६ ॥ नैव पर्यस्तिकां कुर्यात्, पक्षपिण्डं च संयतः । पादौ प्रसार्य वापि न तिष्ठेद् गुरुणामन्तिके || १६ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 76 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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