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________________ के साथ, न कयाइवि—कदाचित् भी न होवे, पसायपेही—प्रसादप्रेक्षी, नियागट्ठी मोक्ष की इच्छा रखने वाला-शिष्य, गुरु-गुरु के पास, सया–सदा, उवचिठे-ठहरे | मूलार्थ—आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर शिष्य कदाचित् भी मौन का अवलम्बन न करे और गुरुओं की प्रसन्नता तथा उनके द्वारा मोक्ष की अभिलाषा रखता हुआ सदा उनके समीप ही रहे। टीका—इस गाथा में आचार्यों के समक्ष होने वाली वाग्विनय के स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन बड़ी ही सुंदरता से किया गया है। गुरुजनों के बुलाने पर शिष्य को कभी मौन नहीं रहना चाहिए, क्योंकि मौनावलम्बन से गुरुओं के वचन का अनादर होता है, जो किसी प्रकार से भी मर्यादा के अनुरूप नहीं माना जा सकता है। विनयशील शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह गुरुजनों के बुलाने पर झट से उनके पास आकर समुचित शब्दों में उनसे अपने लिए अनुष्ठेय कार्य की आज्ञा मांगे और इस बात के लिए अपना परम सौभाग्य समझे कि गुरु महाराज ने अपने पास बैठे हुए अन्य शिष्यों को छोड़कर अमुक सेवा के निमित्त मुझे ही बुलाया है, यह उनकी मेरे ऊपर अनन्य कृपा का सूचक है। इस प्रकार मोक्षाभिलाषी शिष्य गुरुजनों की प्रसन्नता का विचार करता हुआ सदा उनके समीप रहने में ही अपने को अधिक पुण्यशाली समझे। अब फिर इसी विषय में कहते हैं आलवन्ते लवन्ते वा, न निसीएज्ज कयाइ वि । चइऊणमासणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥२१॥ आलपति लपति वा, न निषीदेत् कदापि च | त्यक्त्वासनं धीरः, यतो युक्तं प्रतिश्रृणुयात् ॥ २१॥ - पदार्थान्वयः—आलवन्ते—एक बार बुलाने पर, वा—अथवा, लवंते—बार-बार बुलाने पर, न निसीएज्ज—बैठा ही न रहे, कयाइ वि—कदाचित् भी, आसणं—आसन को, चइऊण छोड़ करके, धीरो—बुद्धिमान्, जओ—जिससे, जत्तं—यत्नवान् होता हुआ—गुरु के वचन को, पडिस्सुणेस्वीकार करे। मूलार्थ—गुरु के द्वारा एक बार बुलाने पर अथवा बार-बार बुलाने पर शिष्य कदाचित् भी बैठा न रहे, किन्तु बुद्धिमान शिष्य आसन को छोड़कर यत्न के साथ गुरुओं के वचन को सुने। टीका-शिष्य का यह धर्म है कि गुरुओं के द्वारा एक बार अथवा एक से अधिक बार बुलाने पर भी वह अपने आसन पर ही न बैठा रहे, किन्तु गुरुओं की आवाज को सुनते ही झट अपने आसन को छोड़कर उनके पास आकर उनके वचनों को सुने और तदनुकूल आचरण करे । तात्पर्य यह कि गुरु द्वारा बार-बार बुलाने से आलस्य और प्रमाद के वशीभूत होकर किसी भी समय उनके वचनों की अवहेलना न करे, इसी में योग्य शिष्य की बुद्धिमत्ता और विनय-धर्म की उज्ज्वलता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 78 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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