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________________ विनय का आचरण किस प्रकार करना चाहिए, यह नीचे फरमाते हैं निस्सन्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया । अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए ॥ ८ ॥ _ निःशान्तः स्यादमुखरिः, बुद्धानामन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत, निरर्थानि तु वर्जयेत् || ८ || पदार्थान्वयः—निस्सन्ते—अतिशान्त, सिया–होवे, अमुहरी—असम्बद्धभाषी न होवे, बुद्धाणं—आचार्यों के, अंतिए—समीप में, सया-सदा, अट्ठजुत्ताणि—अर्थ-युक्त पदों को, सिक्खिज्जा—सीखे, निरट्ठाणि—निरर्थक बातों को, उ–वितर्क से, वज्जए—त्याग दे। मूलार्थ शिष्य स्वभाव से सदा शान्ति रखे, असम्बद्ध भाषण का परित्याग कर दे, सदा गुरुजनों के समीप में ही रहकर अर्थ-युक्त पदों का ग्रहण करे और निरर्थक बातों पर विचार करना छोड़ दे। टीका–विनयशील शिष्य का धर्म है कि वह सदा शान्त रहे, कभी क्रोध न करे, बिना विचार किए कभी न बोले, आचार्यों के समीप रहकर परमार्थ साधक तात्त्विक पदार्थों की शिक्षा ग्रहण करे और परमार्थ-शून्य पदार्थों के जानने के निमित्त अपने अमूल्य समय को न खोए। यहां पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि मूल गाथा में अर्थयुक्त पद के ग्रहण और निरर्थक पद के त्याग का कथन किया गया है। सो यहां पर अर्थयुक्त सार्थक पद से तो परमार्थ-विधायक आगमादि धर्मशास्त्रों का ग्रहण है और निरर्थक पद से केवल लौकिक अर्थ के साधक वात्स्यायनादि रचित काम-सूत्रादि ग्रन्थों के ग्रहण से तात्पर्य है, अर्थात् गाथा में आया हुआ "अट्ठजुत्ताणि" पद सामान्य शास्त्र का बोधक है। इसलिए मुमुक्षु साधक को केवल परमार्थ विषय से सम्बन्ध रखने वाले अध्यात्म-शास्त्रों का ही गुरुजनों के निकट रहकर स्वाध्याय करने का उपदेश किया गया है और केवल ऐहिक विषयों का वर्णन करने वाले लौकिक ग्रन्थों के स्वाध्याय में समय-यापन करने का निषेध है, क्योंकि मुमुक्षु पुरुष के लिए इनमें जानने योग्य कोई महत्व का विषय नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो कोई भी पदार्थ या शास्त्र स्वयं में सार्थक अथवा निरर्थक नहीं होता। पदार्थों की सप्रयोजनता और प्रयोजनशून्यता तो विचार करके अपने निजी भाव और योग्यता पर निर्भर है। कहीं-कहीं सम्यग्दृष्टि-विवेकशील व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया गया मिथ्या-दर्शन-शास्त्र भी सम्यग्दर्शन-शास्त्र हो जाता है और मिथ्यादृष्टि-विवेकशून्य, विचार विहीन द्वारा परिगृहीत सम्यग्दर्शन शास्त्र भी मिथ्यादर्शन-शास्त्र बन जाता है एवं भाव के अनुसार ही कहीं पर आश्रव भी संवर का स्थान ग्रहण कर लेता है और संवर आश्रव हो जाता है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए मूल गाथा में “उ” 'तु' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है विवेक-गम्य । तात्पर्य यह है कि मुमुक्षु पुरुष का जिससे अपना अभीष्ट सिद्ध हो उसी शास्त्र का वह पठन-पाठन करे और जिसके पठन-पाठन से श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 66 / विणयसुयं पढम अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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