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और वह अशुभ फल के अर्थ का सूचक है जो कि अविनीत पुरुष के लिए उपयुक्त ही है ।
तथा ‘साणस्स' शब्द जो कि षष्ठी विभक्ति 'शुन्यः' स्त्रीलिंग के स्थान में पुरुषलिंग से निर्देश किया गया है, वह प्राकृत के बाहुल्य नियम के अनुसार किया गया है। प्राकृत में लिंग और विभक्ति - व्यत्यय की बहुलता प्रायः रहती ही है ।
अब विनय के विषय में शास्त्रकार कहते हैं
तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभेज्जओ । बुद्धपुत्त नियागट्ठी, न निक्कसिज्जइ कण्हुई ॥७॥ तस्माद् विनयमेषयेत्, शीलं प्रतिलभेत यतः । बुद्धपुत्रो नियागार्थी, न निष्कास्यते कुतश्चित् ॥ ७ ॥
पदार्थान्वयः — तम्हा — इसलिए, विणयं—– विनय को, एसिज्जा करे, जओ – जिससे, सीलं - आचार को, पडिलभेज्जओ - प्राप्त करे, नियागट्ठी- नियाग — मोक्ष को चाहने वाला, बुद्धपुत्त – आचार्य पुत्र, कण्हुई – किसी स्थान से भी, न – नहीं, निक्कसिज्ज — निकाला जाता ।
मूलार्थ --- इसलिए भव्य पुरुष विनय का आचरण करे, जिससे कि उसे आचार की प्राप्ति हो, म का अभिलाषी वह बुद्ध-पुत्र -- प्रबुद्ध – आचार्य का शिष्य किसी स्थान से भी नहीं निकाला जाता।
टीका - सर्व प्रकार के सद्गुणों, कां आदि स्रोत विनय है, विनय के अनुष्ठान से ही शीलादि सदाचार की प्राप्ति होती है। विनीत शिष्य तत्त्ववेत्ता आचार्यों के समक्ष पुत्र के समान प्रिय बन जाता है। उसकी मोक्ष सम्बन्धी अभिलाषा उसे हर एक स्थिति और स्थान में आदर का पात्र बना देती है । इसलिए विनय-धर्म का आराधन करने वाला कभी और किसी दशा में भी तिरस्कार का पात्र नहीं बनता। अधिक क्या कहें, विनय धर्म साधु-जीवन का प्राण है।
यहां पर अर्थात् बुद्ध नाम तत्त्ववेत्ता आचार्य का है और पुत्र शब्द शिष्य का बोधक है। आचार्य अथवा गुरुजनों की आज्ञा के अनुकूल बर्ताव करने वाला शिष्य भी उनके निकट पुत्र ही है। शास्त्रकारों ने पुत्र और शिष्य में किसी प्रकार का भी अन्तर नहीं माना, इसलिये आचार्य और शिष्य इन पदों का प्रयोग न करके उसके स्थान में 'बुद्धपुत्र' शब्द का ही प्रयोग ग्रन्थकार ने किया है जिससे कि शिष्य और पुत्र में अभेद का बोध बड़ी सरलता से हो सके । .
यहां पर 'नियागार्थी' शब्द का अर्थ मोक्ष की इच्छा रखने वाला मुमुक्षु है, जैसे कि 'नितरां यागः पूजा यस्मिन् स नियागो मोक्षस्तदर्थी' इस व्युत्पत्ति के द्वारा सिद्ध होता है । " एषयेत्” इस क्रियापद का जो “कुर्यात्”–करे, अर्थ किया गया है वह 'अनेकार्था धातवो भवन्ति' इस व्यापक नियम के आधार पर है।
विनय के अनुष्ठान की विधि
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 65 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं