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________________ उसका अपना कोई प्रयोजन फलीभूत न हो सके उसके अध्ययन में वह अपने अमूल्य समय को न खोए। पदार्थ-शिक्षण-प्रकारअब गुरुजनों के समीप बैठकर जिस विधि से पदार्थों को ग्रहण करना विनीत शिष्य के लिए उचित है उसका वर्णन निम्नलिखित गाथा में किया जाता है, यथा-- अणुसासिओ न कुप्पिज्जा, खंतिं सेविज्ज पण्डिए। खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए ॥ ६ ॥ अनुशासितो न कुप्येत्, शांति सेवेत पण्डितः । क्षुद्रैः सह संसर्ग, हासं क्रीडां च वर्जयेत् || ६ || पदार्थान्वयः-अणुसासिओ शिक्षित करने पर, न कुप्पेज्जा—कोप न करे, खंतिं क्षमा को, सेविज सेवन करे, पण्डिए-पंडित, खुड्डेहिं—क्षुद्रों—पतित आचार वालों के, सह—साथ, संसग्गिं—संसर्ग, हासं—हास्य, च—और, कीडं—क्रीडा, वज्जए—छोड़ देवे। . . मूलार्थ पण्डित जन, विनयशील शिष्य गुरुओं के द्वारा शिक्षा ताड़ना मिलने पर भी क्रोध न करे, किन्तु क्षमा का सेवन करे तथा क्षुद्र.जनों का संसर्ग और उनसे हास्य क्रीडादि न करे। टीका-बुद्धिमान शिष्य के लिए यही उचित है और इसी में उसकी भलाई है कि गुरुजनों के द्वारा सीखे हुए पाठ को प्रमादवश यदि वह भूल जाए और भूल जाने से अशुद्ध पढ़ने लग जाए तथा यह देखकर यदि गुरु महाराज उसको कोमल या कठोर शब्दों के द्वारा ताड़ना करें तो गुरुजनों की इस हित-शिक्षा रूप ताड़ना के उत्तर में वह उन पर किसी प्रकार का क्रोध न करके अपने आपको अविनीत न बनाए और न अपने आत्मा में किसी प्रकार की ग्लानि को स्थान दे, किन्तु हित-बुद्धि से दी गई गुरुजनों की इस समुचित शिक्षा को बड़ी नम्रता से और शान्तिपूर्वक ग्रहण करके अपनी भूल को सुधारने का प्रयत्न करे तथा बाल-जनों—अज्ञानियों—मूढ़ों और पतित जनों के सहवास में कभी न आए और न उनसे किसी प्रकार का हास्य तथा क्रीड़ादि व्यापार करे, क्योंकि उनके संसर्ग में आने से अपनी अन्तर्मुख आत्मवृत्ति में शिथिलता आने की सम्भावना रहती है। इसलिए जिन पतित व्यक्तियों के साथ हास्य-क्रीड़ादि द्वारा अधिक सहवास में आने से धर्मपथ से भ्रष्ट होने की आशंका हो, उनका सहवास दूर से ही त्याग देना उचित है। यहां पर शिष्य को प्रमाद करने के कारण गुरुजनों द्वारा दी गई ताड़ना रूप शिक्षा के उत्तर में उन पर कुपित न होने का जो उपदेश दिया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि क्रोध से विद्या और बुद्धि का नाश हो जाता है तथा क्रोधी पुरुष की विद्या कभी सफल नहीं होती, इसलिए विनीत शिष्य को उचित है कि वह क्रोध से अपनी आत्मा को सदा अलग रखे तथा हास्य, क्रीड़ा और जघन्य पुरुषों का श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 67 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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