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________________ M प्रत्यनीकोऽसंबुद्धः, अविनीत इत्युच्यते ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः– आणा – आज्ञा को, अणिद्देसकरे – अस्वीकार करने वाला, गुरूणं — गुरुओं के, अणुववायकारए—पास न बैठने वाला, पडिणीए – प्रतिकूलवर्ती, असंबुद्धे – तत्त्व के बोध से रहित, अविणीए – विनय-रहित, त्ति - इस प्रकार, बुच्चइ –— कहा जाता है। मूलार्थ — गुरुजनों की आज्ञा को अस्वीकार करने वाला, उनके समीप न बैठने वाला तथा उनके प्रतिकूल आचरण करने वाला और तत्त्वार्थ के बोध से रहित ऐसा जो शिष्य है उसे अविनीत या विनय-शून्य कहते हैं। टीका-पूर्व गाथा में विनय-धर्म के जितने भी लक्षण बताए गए हैं, उनके विपरीत चलने वाला अविनीत कहा जाता है। शास्त्राज्ञा को सम्मान न देना, गुरुजनों की परिचर्या में न रहना तथा गुरुजनों की इच्छा के सर्वथा प्रतिकूल आचरण करना, इत्यादि सब अविनीत शिष्य के लक्षण हैं। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थ-बोध से रहित होना और पूज्य वृद्ध जनों से शत्रुता रखना भी अविनीतता का प्रत्यक्ष स्वरूप है। तत्त्वार्थ-बोध में षट् द्रव्यं, नव तत्त्व, सप्त नय, सप्त भंग और चार प्रमाण आदि के ज्ञान का समावेश है। यदि संक्षेप में कहें तो तीर्थंकरों की आज्ञा का विराधक और गुरुजनों के प्रतिकूल आचरण करने वाला शिष्य अविनीत कहा जाता है, जो कि अति दूषित है। :― अब इसी विषय को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जाता है : जहा सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ ं सव्वसो । एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई ॥ ४ ॥ यथा शुनी पूतिकर्णी, निष्कास्यते सर्वतः एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः मुखारिर्निष्कास्यते || ४ || पदार्थान्वयः—जहा—जैसे, सुणी – कुतिया, पूइकण्णी - सड़े हुए कानों वाली, निक्कसिज्ज - निकाली जाती है, सव्वसो— सर्व स्थानों से, एवं - इसी प्रकार, दुस्सील — दुराचारी, पडिणीए – शत्रुता रखने वाला विद्वेषी, मुहरी — मुखर अर्थात् वाचाल, निक्कसिज्जई — निकाला जाता है। मूलार्थ - जैसे सड़े हुए कानों वाली कुतिया घर आदि निवास योग्य स्थानों से निकाल दी जाती है उसी प्रकार गुरुजनों से शत्रुता रखने वाला, असम्बद्ध - प्रलापी और दुराचारी पुरुष भी गण अर्थात् संघ आदि से पृथक् कर दिया जाता है। टीका - इस गाथा में जो दृष्टान्त दिया गया है वह स्वेच्छाचारी, चारित्र - भ्रष्ट, अविनीत शिष्य के साथ बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । जैसे कि ऐसी कुतिया जिसके कान में कृमि पड़े हुए हैं, घावों से पीप और रुधिर की धारा बह रही है, उसे कोई भी भद्र पुरुष अपने या अपने घर के समीप आने नहीं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 62 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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