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________________ देता, अपितु उसे समीप आती देखकर दूर से ही भगा देता है, जैसे इस सड़ी हुई कुतिया के साथ होने वाले इस प्रकार के व्यवहार को हम प्रत्यक्ष रूप से संसार में देखते हैं, ठीक इसी प्रकार का घृणित व्यवहार लोक में उस व्यक्ति के साथ होता है जो कि आचार-भ्रष्ट होकर शास्त्रों और गुरुजनों की अवहेलना करता है। जैसे उस सड़ी हुई कुतिया को घर में रखने से दुर्गन्धादि के फैलने का भय रहता है उसी प्रकार आचार-भ्रष्ट व्यक्ति के संसर्ग में भी अनेक प्रकार के उपद्रवों के आगमन की सम्भावना रहती है। जिस प्रकार वह कुतिया गृह आदि निवास-योग्य स्थानों में रखने लायक नहीं होती ठीक उसी प्रकार स्वेच्छाचारी, गुरुजन-विद्वेषी और चारित्र-भ्रष्ट अविनीत शिष्य भी संघ आदि में स्थान देने योग्य नहीं होता। इसलिए उक्त गाथा में पुरुष-लिङ्ग का प्रयोग न करते हुए ‘सुणी-शुनी' यह स्त्रीलिङ्ग का प्रयोग किया गया है, जिसका तात्पर्य अतीव जघन्य अर्थ का प्रकाश करना है तथा शुनी के साथ पूतिकर्णी आदि जो विशेषण दिए गए हैं वे उसे अपने संसर्ग से पृथक् रखने में ही चरितार्थ होते हैं। इसके अतिरिक्त “सव्वसो' में निन्दार्थ सूचक ‘शस' प्रत्यय का उपयोग किया गया है उसने तो उक्त भाव की अभिव्यक्ति में चार चांद ही लगा दिए हैं। तात्पर्य यह है कि अविनीत शिष्य उस शुनी के समान त्याग देने योग्य है जिसके पीप और रुधिर आदि बह रहे हैं। यथा पीप और रुधिरादि बहने के कारण से शुनी का संसर्ग त्याज्य है, ऐसे ही दुःशीलादि अवगुणों के निमित्त से अविनीत शिष्य का सम्बन्ध भी किसी प्रकार से उपादेय नहीं होता । ____ दुष्ट पुरुष सद्गुणों का परित्याग कर अवगुणों में किस प्रकार से रमण करता है, इस रहस्य को निम्नलिखित गाथा में दिखाया गया है। कणकुण्डगं चइत्ता णं विट्ठ भुंजइ सूयरो | एवं सीलं चइत्ता णं, दुस्सीले रमई मिए ॥ ५ ॥ कणकुण्डकं त्यक्त्वा खलु, विष्ठां भुंक्ते शूकरः । ‘एवं शीलं त्यक्त्वा खलु, दुःशीले रमते मृगः ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः--सूयरो-शूकर, कणकुंडगं—कण अर्थात् चावलों के पात्र को, चइत्ताणं त्याग कर, विटुंविष्ठा को, भुंजइ–खाता है, एवं—इसी प्रकार, मिए—मृग के समान अज्ञानी, सीलं—शील को, चइत्ताणं-त्याग करके, दुस्सीले दुराचार में, रमई—रमण करता है। __मूलार्थ जिस प्रकार चावलों के पात्र को छोड़कर शूकर विष्ठा ही खाता है उसी प्रकार मृग के समान अज्ञानी जीव शुद्ध आचार का परित्याग करके दुराचार में रमण करता है। टीकाजैसे शूकर भक्षण-योग्य स्वादिष्ट चावलों से भरे हुए कुंड का परित्याग करके केवल विष्ठा के आहार से ही अपने शरीर को पुष्ट करता है, ठीक उसी प्रकार मृग की भांति बोध-रहित अज्ञानी जीव शास्त्र-विहित और साधु-जनानुमोदित सदाचार का परित्याग करके शिष्ट-जन-विगर्हित कुत्सित आचार में ही प्रवृत्त होता है। यहां गाथा में 'मृग' शब्द का प्रयोग मूर्खता के अर्थ-ज्ञापन के | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 63 । विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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