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________________ हुए भी किसी न किसी प्रकार से उन्हें आज्ञा देने के लिये बाध्य करना, उनसे पृथक् रहकर केवल शब्दों द्वारा उनकी प्रशंसा-मात्र कर देना, विनय-धर्म की झूठी नकल करना है। इस प्रकार का कृत्रिम आचरण करने वाला शिष्य न कभी विनीत माना जा सकता है और न उसके इस विनयाभास को विनय-धर्म के नाम से घोषित करना शास्त्र - सम्मत है । मुख्य विनय-धर्म तो सर्वज्ञ वीतराग देव के द्वारा निर्दिष्ट किए गए मार्ग का अनुसरण और तदनुकूल आचरण करने वाले गुरुजनों की आज्ञा के यथावत् पालन में है, इसीलिए आगमों में अनेक जगह पर 'आणा आराहित्ता' की घोषणा देखी जाती है। यहां गाथा के प्रथम पाद में तो आज्ञा के पालन का निर्देश है और द्वितीय, तृतीय पाद में उसके जानने की विधि का वर्णन है तथा चतुर्थ पाद में विनय-धर्म की पूर्ति की गई है। इसलिए शास्त्र-विहित और शिष्ट जनानुमोदित गुरुजनों की आज्ञा में रहने वाला शिष्य ही विनीत भाव को प्राप्त कर अपने अभिलषित स्थान की ओर प्रस्थान करने के लिए शक्तिशाली बन सकता है। भगवान और उनकी वाणी में अभेद जिस प्रकार विनय धर्म के निरूपण में धर्म-धर्मी का कथंचित् अभेद अंगीकार किया गया है, उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् और उनकी आगम रूप वाणी में भी अभेद मानकर शास्त्र की आज्ञा को भगवान् की आज्ञा स्वीकार करना भी किसी प्रकार से असंगत एवं न्याय विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। इसलिए शास्त्रों में जिन आज्ञाओं का विधान है वे सब साक्षात् भगवान की आज्ञा होने से सबके लिए सर्वथा मान्य एवं शिरोधार्य हैं, अतः उनको आचरण में लाना ही विनीत शिष्य का सबसे प्रथम कर्त्तव्य है । विनय-धर्म रूप कल्पवृक्ष के पोषण की मूल सामग्री आगम - विहित आचार के सम्यग् अनुष्ठान में ही निहित है। जिस प्रकार जल - सिंचन आदि क्रियाओं से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ उत्तम वृक्ष अपनी छाया और फल पुष्पादि से पथिक जनों के लिए एक अपूर्व विश्रान्ति का स्थान बन जाता है, ठीक इसी प्रकार शास्त्रानुसार आचरण में लाई जाने वाली विनय-धर्म सम्बन्धी क्रियाएं भी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप स्वाभाविक गुणों में चमत्कारपूर्ण एवं लोकोत्तर उत्कर्ष पैदा करके उसे विश्व-विश्रान्ति का पूर्ण धाम बना देती हैं। अविनय का स्वरूप धर्म और धर्मी का अभेद मानकर जिस तरह विनय का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार अब उसके प्रतिपक्षभूत अविनय के स्वरूप का वर्णन निम्नलिखित गाथा द्वारा किया जा रहा है सिकरे, गुरूणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणीए त्ति वुच्चइ ॥ ३ ॥ आज्ञाऽ निर्देशकरः, गुरूणामनुपपातकारकः । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 61 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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