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________________ आणाणिद्देसकरे, गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति वुच्चई ॥ २ ॥ आज्ञानिर्देशकरः गुरुणामुपपातकारकः । इङ्गिताकारसंपन्नः, स विनीत इत्युच्यते || २ || पदार्थान्वयः-आणा-आज्ञा का, णिद्देसकरे निर्देश करने वाला, गुरूणं-गुरुओं के, उववायकारए–समीप रहने तथा उनकी आज्ञा के अनुकूल कार्य करने वाला, इंगियागारसंपण्णे—गुरुओं के इंगित और आकार को भली-भांति जानने वाला, से—वह, विणीए–विनयवान्, त्ति—इस प्रकार से, वुच्चई—कहा जाता है। मूलार्थ जो गुरुओं की आज्ञा का पालन करने वाला हो, गुरुओं के समीप बैठने वाला हो, उनके कार्य को करने तथा उनके इंगित और आकार को भली प्रकार जानने वाला हो, वह शिष्य विनयवान् कहा जाता है। टीका—इस गाथा में विनय-धर्म का स्वरूप उसके आधारभूत धर्मों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। यहां पर विनय धर्म है और विनयवान् शिष्य धर्मी है, अतः धर्म-धर्मी का अभेद मानकर शिष्य के कर्तव्य का जो वर्णन है वही विनय-धर्म का स्वरूप समझना चाहिए। विनीत अथवा विनयवान् शिष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह आगम-विहित उत्सर्ग और अपवाद-मार्ग का अनुसरण करता हुआ गुरुजनों की आज्ञा के अनुकूल आचरण करे। गुरुजन उसे जिस कार्य के विधान की आज्ञा दें उसे तो वह आचरण में लाए ही और जिस कार्य के लिए वे निषेध करें उसको वह सर्वथा त्याग भी दे, तथा उसकी (शिष्य की) सारी कार्यविधि गुरुजनों की दृष्टि के सम्मुख ही रहनी चाहिए, ताकि उसका कोई भी कार्य गुरुजनों की आज्ञा के प्रतिकूल न हो। इसके अतिरिक्त विनीत शिष्य का केवल इतना ही कर्त्तव्य नहीं है कि वह गुरुओं के आदेश पर ही हेय और उपादेय कार्य में अपनी साधु-चर्या को मर्यादित करे, किन्तु गुरुजनों की प्रवृत्ति और निवृत्ति सूचक, इंगित आकार आदि चेष्टाओं के ज्ञान की भी वह अपने में योग्यता सम्पादन करे। नेत्र का इशारा, सिर का हिलाना और दिशा आदि का अवलोकन करना इत्यादि जो भावसूचक मूलचेष्टाएं हैं उनके द्वारा भी गुरुजनों के आन्तरिक अभिप्राय को समझकर उसके अनुसार आचरण करने वाला शिष्य ही वास्तव में विनीत कहा जा सकता है। यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना, उनकी अंग-संचालनादि मूल चेष्टाओं को समझकर तदनुकूल आचरण करना तथा गुरुजनों के संग का उनकी आज्ञा के बिना परित्याग न करना और श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा-भक्ति करना आदि जो शिष्य के मुख्य धर्म उक्त गाथा में निर्दिष्ट किए गए हैं, उनको अहर्निश भलीभांति आचरण में लाने वाला विनयशील कहा अथवा माना जाता है। इसके विपरीत गुरुजनों को केवल नमस्कार मात्र कर देना, इच्छा न रहते श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 60 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं'
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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