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प्रतिपादन करने में मैं समर्थ हूं। इस कथन से गणधरदेव ने अपनी असीम गुरु भक्ति का परिचय दिया है ।
शृणुत - इस गाथा में जो 'सुणेह' क्रियापद दिया है उससे शिष्यवर्ग को विनय-धर्म का श्रवण कराना हीं ग्रन्थकार को अभिप्रेत है, क्योंकि वक्ता को श्रवण कराने में तभी आनन्द आता है जब कि श्रोता लोग दत्तचित्त होकर श्रवण करने की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करें ।
यहां पर ‘आणुपुव्विं’ यह तृतीया विभक्ति के स्थान में द्वितीयान्त पद का प्रयोग इसलिए किया गया है कि आर्ष-भाषाओं में विभक्ति-व्यत्यय का होना शिष्ट सम्मत है, यह बात सब को भलीभांति विदित हो जाएं तथा इस गाथा में केवल भिक्षु सम्बन्धी विनय-धर्म के वर्णन की जो प्रतिज्ञा की गई है उसका तात्पर्य यह है कि सामान्य व्यक्ति से सम्बन्ध रखने वाले विनय के अवान्तर भेदों में से केवल मोक्ष - विनय के विषय में ही यहां पर विचार करना ग्रन्थकार को अभीष्ट है, अन्य के विषय में नहीं ।
शास्त्रकारों ने विनय के लोकोपचार - विनय, अर्थ-विनय, भय-विनय, काम- विनय और मोक्ष - विनय ये पांच भेद माने हैं।
२.
१. केवल लोक व्यवहार के पालन के उद्देश्य से की जाने वाली विनय लोकोपचार - विनय है । धन प्राप्ति की अभिलाषा के निमित्त किसी धनाढ्य व्यक्ति के समक्ष विनय करना अर्थ-विनय कहलाता है !
३. प्राणादि की रक्षा के लिये किसी राजा - मन्त्री आदि शासक वर्ग के समक्ष की जाने वाली विनय को भय - विनय कहा गया है।
४. विषय-पूर्ति के निमित्त तदुपयोगी सामग्री का संग्रह करना तथा विषय-क्रीड़ार्थ स्त्री आदि का विनय करना काम - विनय है ।
५. ऐहिक तथा पारलौकिक विषय-भोगों के विनश्वर सुख की अभिलाषा को छोड़कर केवल कर्म-क्षय के निमित्त सम्यक्तया रत्नत्रय - दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की आराधना का नाम मोक्ष-विनय है ।
इस प्रकरण में केवल मोक्ष-विनय का ही वर्णन ग्रन्थकार को अभिप्रेत है, क्योंकि इस मोक्ष - विनय के अनुष्ठान से ही कर्म-क्षय द्वारा अक्षय सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति शक्य हो सकती है। इसलिए विनय धर्म के साथ भिक्षु शब्द का सम्बन्ध परम आवश्यक और युक्तियुक्त प्रतीत होता है ।
विनय का स्वरूप
आगामी गाथा में धर्मी द्वारा धर्म का निरुपण किया गया है । यद्यपि बिनय ही निश्चय धर्म है, अतः उसी का वर्णन करना समुचित जान पड़ता है, तथापि धर्म एवं धर्मी के माध्यम से विनय-धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं । यथा—
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 59 / विणयसुयं पढमं अज्झयणं