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________________ पदार्थान्वयःपः न तुज्झ — नहीं तेरे में, भोगे - भोगों के, चइऊण – त्यागने की, बुद्धी – बुद्धि, गिद्धोसि—तूं गृद्ध है, आरंभपरिग्गहेसु — आरम्भ और परिग्रह में, मोहं कओ – निष्फल किया, एत्तिओ —- इतना, विप्पलावो - विप्रलाप, रायं - राजन् गच्छामि — मैं जाता हूं, आमंतिओसि—तुम्हें कहकर — पूछकर । मूलार्थ - हे राजन् ! तेरे में भोगों के त्यागने की बुद्धि नहीं है, तू आरम्भ और परिग्रह में अत्यन्त आसक्त हो रहा है। तूने इतना अर्थात् मेरे द्वारा समझाना बुझाना सब निष्फल ही कर दिया है, अतः तुम्हें कहकर अब मैं जा रहा हूं । टीका - जब चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने चित्त मुनि के किसी भी उपदेश को स्वीकृत नहीं किया, तब मुनि ने कहा कि हे राजन् ! तेरे में भोगों को त्यागने की बुद्धि नहीं है और न आर्य-कर्मों के अनुष्ठान की भावना है। न्याय-पूर्वक प्रजा का शासन करना भी तूने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि तू आरम्भ और परिग्रह में मूर्च्छित - आसक्त हो रहा है, अतः मेरा किया हुआ सब उपदेश निष्फल हो गया अर्थात् वह प्रलापमात्र ही ठहरा, 'अस्तु, अब मैं जाता हूं।' यह कहकर मुनि वहां से चल दिए । 'धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं,' इस नियम के अनुसार 'आमंतितोसि' इस शब्द का 'पृष्टोसि' अर्थ करना चाहिए। मुनि के 'मैं जाता हूं' कहने का अभिप्राय यह है कि यदि कोई व्यक्ति उपदेश को स्वीकार न करे तो उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए, किन्तु अपने आप ही उससे उपराम हो जाना चाहिए । इस प्रकार कहकर चित्त' मुनि जब चले गए तब उसके बाद ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने जो कुछ किया और उसका जो फल हुआ अब उसी का वर्णन करते हैं पंचालरायावि य बंभदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं । अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो ॥ ३४ ॥ पंचालराजोऽपि च ब्रह्मदत्तः, साधोस्तस्य वचनमकृत्वा । अनुत्तरान् भुक्त्वा कामभोगान्, अनुत्तरे सः नरके प्रविष्टः ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः –—–— पंचालराया— पंचाल देश का राजा, बंभदत्तो — ब्रह्मदत्त, तस्स —उस, साहुस्ससाधु के, वयणं – वचनों को, अकाउं— स्वीकार न करके, अणुत्तरे- प्रधान, कामभोगे — काम - भोगों को, भुंजिय-भोगकर, अणुत्तरे- प्रधान, नरए – नरक में, सो—वह चक्रवर्ती, पविट्ठो - प्रविष्ट हुआ, विनिश्चय अर्थ में और, य— पादपूर्त्यर्थ है । मूलार्थ - पंचाल देश का राजा ब्रह्मदत्त उस साधु के वचनों को स्वीकार न करके प्रधान काम-भोगों का उपभोग करता हुआ प्रधान नरक में गया । टीका - चित्त मुनि के प्रयाण कर जाने के अनन्तर पंचाल देश के चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त ने उक्त मुनि के उपदेश को अंगीकार नहीं किया, अतः वह उत्तम एवं प्रमुख काम भोगों का सेवन करता हुआ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 473 चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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