SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर कर सबसे निकृष्ट नरक में गया, अर्थात् सातवें नरक के अप्रतिष्ठान नामक पांचवें नरकावास में उत्पन्न हुआ। इस गाथा में निदानपूर्वक किए जाने वाले कर्मों का फल तथा काम-भोगों में अत्यन्त आसक्ति रखने का जो परिणाम होता है उसका चित्र बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है जिससे कि विचारशील पुरुष इन विषय-भोगों का त्याग करके धर्माचरण में प्रवृत्त होने का प्रयत्न करें। प्रसङ्गवशात् अब शास्त्रकार चित्त मुनि के विषय में कहते हैं चित्तो वि कामेहिं विरत्तकामो, उदग्गचारित्ततवो महेसी । अणुत्तरं संजमं पालइत्ता, अणुत्तरं सिद्धिगइं गओ ॥ ३५ ॥ त्ति बेमि | इति चित्तसंभूइज्जं तेरहमं अज्झयणं समत्तं ॥ १३ ॥ चित्तोऽपि कामेभ्यो विरक्तकामः, उदग्रचारित्रतपा महर्षिः । अणुत्तरं संयम पालयित्वा, अनुत्तरां सिद्धिगतिं गतः || ३५ ॥ इति ब्रवीमि । इति चित्तसंभूतीयं त्रयोदशमध्ययनं सम्पूर्णम् || १३ ॥ पदार्थान्वयः—चित्तो वि—चित्त भी, कामेहिं—काम-भोगों से, विरत्तकामो विरक्तकाम होकर, उदग्ग– प्रधान, चारित्त—चारित्र और तवो—तप वाला, महेसी महर्षि, अणुत्तरं—प्रधान, संजमं—संयम को, पालइत्ता—पालकर, अणुत्तरं—प्रधान, सिद्धिगई—मोक्ष गति को, गओ—प्राप्त हुआ। त्ति बेमि—इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ–महर्षि चित्त मुनि भी काम-भोगों से विरक्त होकर चारित्र और तप संयम का आराधन करता हुआ सर्व प्रधान मोक्ष-गति को प्राप्त हुआ। टीका—ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के विषय में तो ऊपर सब कुछ कह दिया गया है, अर्थात् काम-भोगों में बढ़ी हुई अधिक आसक्ति के कारण वह सातवें नरक में गया और काम-भोगों से सर्वथा विरक्त होकर तप और चारित्र की प्रधानता वाले चित्त मुनि संयम की आराधना करते हुए सर्वश्रेष्ठ मोक्ष गति को प्राप्त हुए। इस कथन से काम-भोगों के कटु परिणामों को और धर्माचरण के शुभ परिणामों को बताते हुए शास्त्रकारों ने मुमुक्षु पुरुषों के लिए धर्म का ही आचरण सर्वश्रेष्ठ बताया है अतः वही सब के लिए उपादेय है। ___ इसके अतिरिक्त 'त्ति बेमि' इस वाक्य का अर्थ अनेक बार प्रत्येक अध्ययन के अन्त में बताया जा चुका है। उसी के अनुसार यहां भी समझ लेना चाहिए। त्रयोदशम अध्ययन सम्पूर्ण। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 474 | चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy