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जइ तंसि भोगे चइउं असत्तो, अज्जाई कम्माई करेहि रायं! । धम्मे ठिओ सव्वपयाणुकंपी, तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ॥३२॥
यदि त्वमसि भोगान् त्यक्तुमशक्तः, आर्याणि कर्माणि कुरुष्व राजन्! ।।
धर्मे स्थितः सर्वप्रजानुकम्पी, तस्माद् भविष्यसि देव इतो वैक्रियी ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः—जइ—यदि, तं-तू, सि—है, भोगे—भोगों के, चइउं—छोड़ने को, असत्तो—असमर्थ है तो, अज्जाइं—आर्यों के, कम्माइं—कर्मों को, रायं—हे राजन्! करेहि-तू कर, धम्मे—धर्म में, ठिओ—स्थित, सव्व—सर्व, पयाणुकंपी—प्रजा पर अनुकम्पा करने वाला हो, तो तिस से, होहिसि—होवेगा, देवो–देवता, इओ—यहां से मरकर, विउव्वी–वैक्रिय शरीर वाला। ___मूलार्थ हे राजन्! यदि तू काम-भोगों को छोड़ने में असमर्थ है तो आर्य-कर्म कर और धर्म में स्थित होकर समस्त प्रजा पर अनुकम्पा करने वाला हो, उससे तू यहां से मर कर वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न देवता हो जाएगा।
टीका–चक्रवर्ती के प्रति चित्त मुनि कहते हैं कि हे राजन्! यदि आप काम-भोगों के त्याग में असमर्थ हैं तो आप आर्य-जनोचित कर्मों का अनुष्ठान अवश्य करें एवं धर्म में आरूढ़ होकर अपनी समस्त प्रजा पर अनुकम्पा भाव रखें, क्योंकि न्याय-पूर्वक प्रजावर्ग का पालन करना ही राजा का मुख्य धर्म है। इस प्रकार श्रेष्ठजनानुमोदित कर्मों के अनुष्ठान से आप यहां से मर कर वैक्रिय-लब्धि वाले देव बन जाओगे। ___ प्रस्तुत गाथा में गृहस्थ-धर्म, राज-धर्म, और दोनों धर्मों के फल का भली-भांति दिग्दर्शन कराया गया है, क्योंकि राजा का मुख्य धर्म न्याय और शांति से प्रजा का यथावत् पालन-संरक्षण करना है। इसी से वह धर्मज्ञ और संसार में प्रशंसा का पात्र बनता है।
गृहस्थ धर्म द्वादश व्रत रूप है, अतः श्रावक-धर्म का मुख्य उद्देश्य आर्य कर्मों का अनुष्ठान और न्याय-प्रियता है। इसी आशय से मुनि कहते हैं कि 'हे राजन्! यदि तुम सर्वविरति रूप साधु धर्म के अनुष्ठान में असमर्थ हो तो न्यायपूर्वक प्रजा का अनुकम्पा बुद्धि से संरक्षण करें और देश विरति रूप गृहस्थ-धर्म में स्थित हों। इसका फल यह होगा कि यहां से मरने के बाद आप वैक्रिय-लब्धि युक्त देव बन जाएंगे, अर्थात् वैमानिक देवों की श्रेणी में जन्म लेंगे। मांस, मदिरा और प्राणी-वध के त्याग-पूर्वक शास्त्र-विहित जो कर्म हैं, वे कर्म आर्य-कर्म कहलाते हैं। इतना कहने पर भी जब मुनि के उपदेश को राजा ने ग्रहण न किया, तब वे कहने लगे कि
न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी, गिद्धोसि आरंभपरिग्गहेसु । मोहं कओ एत्तिओ विप्पलावो, गच्छामि रायं! आमंतिओ सि ॥ ३३ ॥
न तव भोगान् त्यक्तुं बुद्धिः, गृद्धोऽसि आरंभ-परिग्रहेषु । मोघं कृतमेतावान् विप्रलापः, गच्छामि राजन्नामंत्रितोऽसि ॥ ३३ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 472 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
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