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________________ — सारांश यह है कि जिन पदार्थों पर इस जीव का अत्यन्त प्रेम होता है, मृत्यु के समय उन सबको छोड़कर परवश होकर परलोक में अपने कर्मों के अनुसार उत्तम व अधम गति को प्राप्त कर लेता है। ___ यहां पर 'सुंदर' शब्द में अनुस्वार का लोप प्राकृत के नियम से हुआ है। मृत्यु होने के पश्चात् जीव के द्वारा धारण किए हुए शरीर की क्या गति होती है, अब इसी विषय का वर्णन करते हैं। यथा तं एक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं दहिय उ पावगेणं । - भज्जा य पुत्तावि य नायओ य, दायारमण्णं अणुसंकमन्ति ॥२५॥ तदेककं तुच्छशरीरकं तस्य, चितिगतं दग्ध्वा तु पावकेन । . भार्या च पुत्रा अपि च ज्ञातयश्च, दातारमन्यमनुसंक्रमन्ति ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः-तं एक्कगं वह अकेला जीव रहित, तुच्छ—सार-रहित, सरीरगं—शरीर को, से—उसका, चिईगयं—चिता-गत, पावगेणं अग्नि के द्वारा, दहिय—जलाया जाता है, उ–वितर्क अर्थ में, भज्जा–भार्या, य—और, पुत्तावि—पुत्र भी, य–तथा, नायओ-ज्ञातिवर्ग, अण्णं—अन्य, दायारं दातार के, अणुसंकमंति—पीछे चलने लगते हैं। मूलार्थ जीव-रहित इस तुच्छ शरीर को चिता पर रखकर अग्नि के द्वारा जलाया जाता है, फिर मृत जीव के भार्या, पुत्र तथा अन्य सम्बन्धी जन अन्य दातार के पीछे चल पड़ते हैं। टीका—जब यह जीव शरीर को छोड़कर परलोक को प्रयाण कर जाता है तब इस शरीर को तुच्छ एवं निस्सार जानकर चिता में रखकर अग्नि के द्वारा उसे भस्म कर दिया जाता है। फिर उसकी भार्या, पुत्र तथा अन्य सगे-सम्बन्धी पुरुष वहां से पराङ्मुख होकर उसके स्थान पर किसी दूसरे पुरुष को नियुक्त करके उसको अपना रक्षक समझते हुए उसके अनुसार उसकी आज्ञा में चलने लग जाते हैं। तात्पर्य यह है कि उस दिन के बाद फिर उस मृतक का कोई स्मरण तक भी नहीं करता है। .. प्रस्तुत गाथा के द्वारा संसार की अनित्यता, स्वार्थ-परायणता और इस शरीर की अन्तिम दशा का बहुत ही सुन्दर चित्र खींचा गया है। अग्नि द्वारा शव का दाह करना आर्यावर्त की अति प्राचीन प्रथा है, जिसका कि उल्लेख इस गाथा में किया गया है। मृत्यु के बाद जो रुदन और विलाप आदि किया जाता है, उसमें स्वार्थ-परायणता के अतिरिक्त अन्य कोई भाव नहीं होता। अब मुनि उक्त सम्राट को फिर उपदेश करते हैं उवणिज्जई जीवियमप्पमायं, वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं! पंचालराया! वयणं सुणाहि, मा कासि कम्माइं महालयाई ॥२६॥ उपनीयते जीवितमप्रमादं, वर्णं जरा हरति नरस्य राजन् ! पंचालराज! वचनं श्रृणुष्व मा कार्षीः कर्माणि महालयानि || २६ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 467 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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