SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . भाई कर सकते हैं, एक्को–अकेला, सयं—स्वयमेव, दुक्खं दुःख का, पच्चणुहोइ—प्रत्यनुभव करता है, कत्तारमेव—कर्ता के ही, कम्मं—कर्म, अणुजाइ—पीछे जाता है। ___ मूलार्थ मरते हुए प्राणी के दुख का ज्ञाति जन विभाग नहीं कर सकते तथा न मित्रवर्ग, न पुत्र और न ही भ्राता आदि उसे बचा सकते हैं, किन्तु यह जीव अकेला स्वयमेव उस दुख का अनुभव करता है, क्योंकि कर्ता के पीछे ही कर्म जाता है। टीका—मुनि कहते हैं कि 'हे राजन्! मृत्यु के समय उस प्राणी के शारीरिक व मानसिक दुखों का विभाग उसके ज्ञाति-जनों में से कोई भी नहीं कर सकता, किन्तु जिसने कर्म किए हैं वह जीव अकेला ही अपने किए हुए कर्मों के फल-स्वरूप दुख का स्वयमेव अनुभव करता है, क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे जाते हैं। ___ जैसे हजारों गौओं में से बछड़ा अपनी माता को ढूंढ़ लेता है, अथवा जैसे पुरुष की छाया पुरुष के पीछे ही चलती है, उसी प्रकार कर्म भी कर्ता के पीछे ही जाता है, अतः सम्बन्धी-जनों ने आयु के अंश को तो क्या लेना है, वे तो उपस्थित होते हुए दुख को भी नहीं बांट सकते। यहां पर 'ज्ञाति' शब्द दूर के सम्बन्धियों का और 'बन्धु' शब्द निकट के सम्बन्धियों का वाचक है। __ इस प्रकार अशरण-भावना का वर्णन करने के अनन्तर अब एकत्व-भावना का वर्णन करते हैं, यथा चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धण-धन्नं च सव्वं । सकम्मबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ २४ ॥ त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च, क्षेत्रं गृहं धन धान्यं च सर्वम् । , स्वकर्मद्वितीयोऽवशः प्रयाति, परं भवं सुन्दरं पापकं वा || २४ ॥ . . पदार्थान्वयः–दुपयं-द्विपद को, च-और, चउप्पयं—चतुष्पद को, खेत्तं क्षेत्र को, च–तथा, गिहं—गृह को, च-और, धणं-धन को, धन्न-धान्य को, सव्वं अन्य सर्व वस्तुओं को, चिच्चा–छोड़कर, सकम्मबीओ-अपने कर्मरूप दूसरे साथी के सहित, अवसो-परवशता से, पयाइ–प्राप्त करता है, परं भवं-पर-भव को, सुंदर-स्वर्गादि स्थान, वा—अथवा, पावर्ग-नरकादि स्थान को। मूलार्थ—यह जीव द्विपद (नौकर-चाकर), चतुष्पद (पशु), क्षेत्र, घर, धन और धान्य तथा अन्य सर्व वस्तुओं को छोड़कर स्वयं ही अकेला अपने कर्मरूप दूसरे साथी के सहित परवशता से कर्मानुसार परलोक में स्वर्ग अथवा नरक स्थान को प्राप्त करता है। टीकामुनि कहते हैं कि मृत्यु के समय यह आत्मा अर्थात् जीव अपनी प्यारी भार्या आदि तथा प्रिय लगने वाले अश्वादि, क्षेत्र तथा सुन्दर बाग-बगीचे आदि तथा गृह और धन-धान्यादि सभी पदार्थों को छोड़कर अकेला ही एकमात्र कर्म को साथ लेकर परलोक को प्रयाण कर जाता है। वहां पर अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों के अनुसार स्वर्ग अथवा नरक में स्थान प्राप्त करता है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 466 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy