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________________ • यदि कोई कहे कि मृत्यु के समय स्वजन आदि रक्षक बन जाएंगे, अब इसी शंका का समाधान करते हैं जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले । न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मंसहरा भवंति॥२२॥ यथेह सिंहो वा मृगं गृहीत्वा, मृत्युनरं नयति खल्वन्तकाले । न तस्य माता वा पिता च भ्राता, काले तस्यांशधरा भवन्ति ॥ २२ ॥ .. पदार्थान्वयः–जहा—जैसे, इह—इस लोक में, सीहो—सिंह, व–वा, मियं—मृग को, गहाय—पकड़कर मृत्यु के मुख में पहुंचाता है, उसी प्रकार, मच्चू-मृत्यु, नरं मनुष्य को, हुनिश्चय ही, अंतकाले—अन्त समय में, नेइ—परलोक में पहुंचा देती है, तस्स—उस समय उसके, माया माता, व–वा, पिया-पिता, व–वा, भाया भ्राता, कालम्मि—उस काल में, तम्मंसहरा—अंश के धरने वाले, न भवंति–नहीं होते हैं। ____ मूलार्थ जैसे इस लोक में सिंह मृग को पकड़कर मृत्यु के मुख में पहुंचा देता है, उसी प्रकार निश्चय ही मृत्यु अंत समय में इस जीव को परलोक में पहुंचा देती है। परन्तु उसके माता, पिता और भ्राता मृत्यु के समय आयुरूप अंश के धरने वाले नहीं होते। टीका इस गाथा में अशरण-भावना का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे इस लोक में सिंह और व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी मृगांदि जीवों को पकड़कर मृत्यु के मुख में पहुंचा देते हैं, ठीक उसी प्रकार यह मृत्यु इस जीव को निश्चय ही अन्तकाल में परलोक में पहुंचा देती है, परन्तु उस समय माता, पिता वा भ्राता आदि कोई भी उसे बचा नहीं सकते, क्योंकि जैसे किसी व्यक्ति पर राजा का कोप होने से उसके सम्बन्धी लोग धन आदि देकर उसकी राजा से रक्षा कर लेते हैं, इसी प्रकार मृत्यु के समय मरते हुए प्राणी को उसके स्वजनादि अपने जीवन में से कुछ आयु का अंश देकर बचा नहीं सकते । यदि कोई कहे कि आयु का अंश तो नहीं दिया जा सकता, परन्तु उसके दुख की निवृत्ति के लिए उपक्रम तो किया जा सकता है, अब सूत्रकार इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥२३॥ न तस्य दुःखं विभजन्ते ज्ञातय, न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः । ___ एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं, कर्तारमेवानुयाति कर्म || २३ ॥ पदार्थान्वयः तस्स—उसके, दुक्खं दुख का, नाइओ—ज्ञांतिजन, न विभयंति—विभाग नहीं कर सकते, न मित्तवग्गा—न ही मित्रवर्ग कर सकता है, न सुया-न पुत्र कर सकते हैं, न बंधवा-न * 'अंशं जीवितभागं धारयन्ति मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीत्यंशधराः स्वजीवितांशदानतः' टीका । | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 465 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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