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________________ टीका – चित्त मुनि चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को उपदेश देते हुए कहते हैं कि 'हे राजन् ! तू पिछले जन्म के अनगार संभूत का जीव है जो कि इस समय महासमृद्धिशाली, महाभाग्यवान् और महान् पुण्यफलं का उपभोग करने वाले एक सम्राट् के रूप में विद्यमान है । यह सब कुछ धर्म का ही फल है अतः इन विनश्वर तथा आपात- रमणीय काम भोगों को छोड़कर चारित्र - धर्म की आराधना के लिए घर से बाहर निकलो, क्योंकि गृहवास में सर्व-विरति धर्म का अनुष्ठान नहीं हो सकता तथा जब कि इस समय तुझको अपने पिछले पांच जन्मों का ज्ञान है और उनमें उपस्थित हुई परिस्थितियों का भी तुझको परिचय है, तब तो धर्म और कर्म के शुभाशुभ फल का भी तुझको अवश्य ज्ञान होगा । अतः अब तुम्हारे लिए प्रमाद करना उचित नहीं है। यदि किसी जीव के हृदय में ज्ञानांकुर की उत्पत्ति न हुई हो तो उसका संयम में दृढ़ होना कठिन ही होता है, परन्तु जिसका हृदय ज्ञान - ज्योति से आलोकित हो रहा हो उसके लिए प्रमाद का आचरण कैसे सम्भव हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि आपको तो पिछले पांच जन्मों का ज्ञान है, अतः आप जैसे ज्ञानवान् को अब दीक्षा के लिए विलम्ब नहीं करना चाहिए । ' धर्म का आचरण न करने वालों को क्या हानि होती है, अब शास्त्रकार इसी विषय का वर्णन. करते हैं इह जीविए राय ! असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो । से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्मं अकाऊण परम्मि लोए ॥ २१ ॥ इह जीविते राजन्नशाश्वते, अधिकं तु पुण्यान्यकुर्वाणः । स शोचति मृत्युमुखोपनीतः, धर्ममकृत्वा परस्मिंल्लोके || २१ || पदार्थान्वयः – राय —– राजन्!, इह – इस, असासयम्मि — अशाश्वत, जीविए — जीवितव्य, धणियं—जो अत्यन्त अस्थिर हैं, पुण्णाई – पुण्य, तु —ही, अकुव्वमाणो - न करता हुआ, से वह जीव, मच्छु – मृत्यु के, मुहोवणीए मुख में प्राप्त होने के समय, सोयई — सोचता है, धम्मं धर्म के, अकाऊण— बिना किए, परम्मि लोए - परलोक में। में मूलार्थ - हे राजन् ! इस अशाश्वत जीवन में पुण्य कर्म न करने वाला जीव मृत्यु के मुख पहुंचकर सोच करता है तथा धर्म के न करने वाला परलोक में भी सोच ही करता रहता है । . टीका महर्षि कहते हैं कि हे राजन् ! इस अशाश्वत जीवन में पुण्य के न करने वाला जीव मृत्यु के निकट पहुंचकर बड़े सोच एवं पश्चात्ताप सहित चिन्ता करता है कि अहो ! मैंने कोई पुण्योपार्जन नहीं किया और मृत्यु के पश्चात् परलोक में पहुंचकर अभीष्ट सुख की प्राप्ति न होने पर पुनः परम दुखी होता है कि अहो ! यदि मैंने कोई सत्कर्म किया होता तो इस जन्म में सुखी होता, परन्तु इस पश्चात्ताप से फिर क्या बन सकता है। अतः राजन् ! अब प्रमाद मत करो! कारण कि यह जीवन अत्यन्त अस्थिर है। यहां पर ‘धणियं’ यह अव्यय अत्यन्त अस्थिर अर्थ में आया है और 'तु' एवं अर्थ में है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 464 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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