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________________ - तस्यां च जातौ तु पापिकायां, उषितौ स्वः श्वपाकनिवेशनेषु | - सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ, अस्मिंस्तु कर्माणि पुराकृतानि || १६॥ . पदार्थान्वयः–तीसे—उस, जाईइ—जाति में, य—पुनः, उ–वितर्क में, पावियाए—पापरूप में, वुच्छा—बसे, मु—हम दोनों, सोवागनिवेसणेसु-चांडाल के घर में, सव्वस्स—सब, लोगस्स—लोक में, दुगुंछणिज्जा निन्दनीय थे, तु-फिर, इहं—इस जन्म में जो उत्तम जाति मिली है वह सब, पुरेकडाइं—पूर्व जन्मों में किए हुए, कम्माइं—कर्मों का फल है। . मूलार्थ—उस अधम जाति में हम दोनों चांडाल के घर में रहे थे, वह जाति सर्वलोक में निन्दनीय थी परन्तु इस जन्म में हम जो फल भोग रहे हैं, वह सब पूर्व जन्मों में किए हुए शुभ कर्मों का फल टीका—मुनि कहते हैं—'हे राजन्! हम उस चांडाल जाति में रहे जो कि अधम थी और पाप-प्रधान क्रियाओं की अधिक प्रवृत्ति होने से जिसको पापरूप और निन्दनीय कहा जाता था, परन्तु इस समय हम दोनों को जो उत्तम जाति और विशिष्ट भोग-सामग्री का लाभ हो रहा है वह सब उसी हीन जाति में उत्पन्न होने पर भी किए हुए शुभ कर्मों का फल है। तात्पर्य यह है कि इस समय तू जिस तप-संयम को दुखरूप समझ रहा है यह वर्तमान समय का विशिष्ट ऐश्वर्य उसी कष्ट दायक समझे जाने वाले तप-संयम का फल है। इससे सिद्ध हुआ कि शुभ कर्म किसी भी अवस्था में किए जाएं, उनका अच्छा ही फल प्राप्त होता है। प्रस्तुत गाथा में 'मु' यह ‘आवां' के अर्थ में ग्रहण किया गया है। ... इतना कहने के अनन्तर अब कर्तव्य के विषय में कहते हैं सो दाणिसिं राय! महाणुभागो, महिड्डिओ पुण्णफलोववेओ । चइत्तु भोगाइं असासयाई, आदाणहेउं अभिणिक्खमाहि ॥ २० ॥ स इदानीं राजन्! महानुभागः, महर्द्धिकः पुण्यफलोपपेतः । ' त्यक्त्वा भोगानशाश्वतान्, आदानहेतोरभिनिष्काम् ॥२०॥ पदार्थान्वयः—सो—वह संभूत का जीव, दाणिसिं—इस समय, राय-राजन्, महाणुभागो—महा भाग्यवान्, महिड्डिओ-महान् ऋद्धि वाला है, पुण्णफलोववेओ-पुण्यरूप फल से युक्त है, अतः, चइत्तु–छोड़कर, असासयाई-अशाश्वत, भोगाई–भोगों को, आदाण—चारित्र के, हेउं—हेतु, अभिणिक्खमाहि—घर से निकलो । मूलार्थ–पिछले जन्म में जो संभूत का जीव था, वही इस समय भाग्यवान् महती समृद्धि और पुण्यफल से युक्त होकर महाराज चक्रवर्ती है, अतः हे राजन्! इन विनाशी काम-भोगों को छोड़कर संयम ग्रहण करने के लिए तुम घर से बाहर निकलो । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 463 / चित्तसम्भूइज्ज तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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