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________________ अज्ञानी जीव होते हैं वे अपनी विषय-वासना की पूर्ति को ही वास्तविक सुख समझकर उसी में प्रवृत्त होते हुए अपने जीवन को विनष्ट कर देते हैं, परन्तु जो विचारशील व्यक्ति हैं वे विषय-जन्य सुख को अति तुच्छ और दुखमूलक समझते हुए उसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। इसके अतिरिक्त विषय-जन्य सुख और आध्यात्मिक सुख की तुलना में इससे अधिक और प्रत्यक्ष उदाहरण क्या हो सकता है कि विषयी पुरुषों की शारीरिक और मानसिक स्थिति जितनी अधिक दुर्बल और मलिन होती है, उससे कई गुणा अधिक बलवान् और उज्ज्वल शारीरिक और मानसिक स्थिति ब्रह्मचारी और धर्मनिष्ठ पुरुषों की होती है। जिनको इस पर भी सन्देह हो वे एक पामर विषयी पुरुष के साथ एक धर्मात्मा ब्रह्मचारी पुरुष को खड़ा करके अपने संदेह को दूर कर लें। इससे दोनों में रहने वाला अन्तर स्वतः ही स्पष्ट हो जाएगा। इस प्रकार विषय-जन्य सुख की अवहेलना करते हुए उक्त मुनिराज अब और ज्ञातव्य बातों का उपदेश उस राजा के प्रति करते हुए कहते हैं नरिंद! जाई अहमा नराणं, सोवागजाई दुहओ गयाणं । जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा, वसीअ सोवागणिवेसणेसु ॥ १८॥ नरेन्द्र! जातिरधमा नराणां, श्वपाकजातियोः गतयोः । यस्यामावां सर्वजनस्य द्वेष्यौ, अवसाव श्वपाकनिवेशनेषु || १८ ॥ पदार्थान्वयः नरिंद हे नरेन्द्र! जाई-जाति, अहमा अधम, नराणं—नरों में, सोवागजाईश्वपाक-चांडाल जाति में, दुहओ—दोनों, गयाणं—गये, जहिं—जहां पर, वयं हम दोनों, सव्व-सर्व, जणस्स-जन को, वेस्सा-द्वेष के कारण हुए, वसीअ—निवास करते रहे, सोवागणिवेसणेसु-चांडाल के घर में। मूलार्थ हे नरेन्द्र! नरों में अधम ऐसी चांडाल जाति में हम दोनों उत्पन्न हुए, जिस जाति में जन्म लेने से और उस जाति में रहते हुए हम दोनों सभी जनों के द्वेष का कारण बने। टीका—चित्त मुनि कहते हैं कि हे नरेन्द्र! नरों में अधम जो चांडाल जाति है हम दोनों पिछले जन्म में उसी जाति में उत्पन्न हुए थे तथा वह जाति सबके लिए द्वेष एवं निंदा का कारण थी। परन्तु हम दोनों ने उसी जाति में जन्म धारण करके चांडाल के घर में निवास किया, अतः जाति का अभिमान तो व्यर्थ है, क्योंकि यह प्राणी जिस प्रकार के कर्म करता है उसी के अनुसार वह श्रेष्ठ एवं अधम जातियों में उत्पन्न होकर अच्छे बुरे कृत कर्मों के फल भोगता है, परन्तु हीन जाति में उत्पन्न होकर भी मनुष्य यदि शुभ कर्म करे तो वह निन्दनीय नहीं होता। अब इसी विषय को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, यथा तीसे य जाईइ उ पावियाए, वुच्छा मु सोवागनिवेसणेसु । सव्वस्स लोगस्स दुगुंछणिज्जा, इहं तु कम्माइं पुरे कडाइं ॥१६॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 462 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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