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________________ विषय-भोग भी भोक्ता का समूल नाश किए बिना उसे नहीं छोड़ते, अतः ये सबसे अधिक भयंकर हैं। इनको सुखका हेतु समझना मृत्यु को जीवन समझने के समान बहुत बड़ी अज्ञानता है, इसलिए इन . उक्त पदार्थों के विषय में मेरी तनिक भी रुचि नहीं है । इसलिए इनके उपयोग के लिए मेरे से प्रार्थना करना सर्वथा अनुपयुक्त है। अब विषय - जन्य सुख की लघुता को दिखाते हुए वे मुनि फिर कहते हैंबालाभिरामेसु दुहावहेसु, न तं सुहं कामगुणेसु रायं! । विरत्तकामाण तवोधणाणं, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ॥ १७ ॥ बालाभिरामेषु दुखावहेषु, न तत्सुखं कामगुणेषु राजन् ! | विरक्तकामानां तपोधनानां, यद् भिक्षूणां शीलगुणेषु रतानाम् || १७ || पदार्थान्वयः–रायं—हे राजन्!, बालाभिरामेसु - – बाल जीवों को प्रिय लगने वाले, दुहावहेसु— दुखों के देने वाले, कामगुणेसु — काम - गुणों में, न तं सुहं – वह सुख नहीं, विरत्तकामाण – काम-भोगों से विरक्त, तवोधणाणं—तपोधनों को, सीलगुणे - शील गुणों में, रयाणं – रत, भिक्खुणं — भिक्षुओं को, जं- जो सुख प्राप्त होता है । मूलार्थ - हे राजन् ! बाल जीवों को प्रिय लगने वाले तथा दुखों के देने वाले काम-भोगों में वह सुख नहीं है जो सुख काम-भोगों से विरक्त रहने वाले शीलगुण में अनुरक्त तपोधन—–— तस्वी भिक्षुओं अर्थात् साधुओं को प्राप्त होता है। टीका — मुनि कहते हैं - हे राजन् ! विषयों से विरक्त और शीलगुणों में अनुरक्त रहने वाले साधु पुरुषों को जिस अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है वह अलौकिक सुख इन बालप्रिय और परिणाम में दुख देने वाले काम-भोगों में कदापि उपलब्ध नहीं हो सकता । ये काम - भोगादि विषय आरम्भ में ही किंचित् सुख देने वाले हैं, वे भी उन अज्ञानी जीवों को जो कि परमार्थ से सदा अनभिज्ञ हैं । तात्पर्य यह है कि जो जीव विवेक से रहित हैं, उन्हीं को ये काम - भोगादि विषय प्रिय लगते हैं. और वास्तव में तो ये काम - भोग दुखों के मूल हैं। इनमें सुख का लेश भी नहीं । अतएव संयमशील तपस्वी जनों को आत्म-रमणता में जो अपूर्व आनन्द प्राप्त होता है, उस आनन्द के एक कण का सहस्रांश भी इन काम-भोगों में उपलब्ध नहीं हो सकता । यह प्रत्यक्ष है कि विषयी पुरुषों को विषय-वासना से किसी भी समय शांति नहीं मिलती, विपरीत इसके वे प्रतिक्षण अशान्त और सन्तप्त ही रहते हैं । इसलिए तपस्वी और संयमी पुरुषों के आध्यात्मिक आनन्द के साथ इस विषय- जन्य अतिक्षुद्र सुख की किसी अंश में भी तुलना नहीं हो सकती । प्रस्तुत गाथा में त्यागशील और मननशील साधु-पुरुषों और विषय - जन्य सुख की लालसा रखने वाले संसारी पुरुषों के सुख में जो अन्तर है उसका दिग्दर्शन कराया गया है। इस विश्व में हर एक प्राणी सुख की अभिलाषा रखता है और उसके लिए न्यूनाधिक रूप में यत्न भी करता है, परन्तु जो श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 461 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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