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________________ - पदार्थान्वयः—कम्मा कर्म, नियाण निदान रूप, पगडा–किए, तुमे तूने, राय–राजन्! विचिंतिया–चिन्तन किए, तेसिं—उन्हीं के, फल-विवागेण—फल-विपाक से हम, विप्पओगं—वियोग को, उवागया—प्राप्त हुए। मूलार्थ हे राजन्! तुमने जो पुण्य-कर्म किए थे वे निदान को लेकर किए थे और निदान-पूर्वक ही उनका विशेष रूप से चिन्तन किया था, अतः उनके फल-विपाक से ही हमारा यह परस्पर वियोग हुआ। टीका—मुनि ने उत्तर में प्रतिपादन किया कि हे राजन्! तूने ज्ञानावरणीयादि कर्म निदान रूप से किए थे, क्योंकि जिसके द्वारा तप आदि क्रियाएं खंडित हों उसे निदान कहते हैं 'नितरां दीर्यन्ते खंड्यन्ते, तपः प्रभृतीन्यनेनेति निदानम्'। ___तात्पर्य यह है कि तुमने भोगादि की आशा से निदान-पूर्वक कर्म किए और उनके लिए आर्त्त-ध्यानादि का विशेष रूप से चिन्तन किया, अतः उन्हीं कर्मों के फल-विपाक से तेरा और मेरा इस छठे भव में वियोग हो गया। यद्यपि मैंने तुमको रोका भी था, परन्तु तुमने नहीं माना इसी का यह वियोग रूप विलक्षण फल है। अब चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त फिर पूछता है सच्चसोयप्पगडा, कम्मा मए पुरा कडा । .. ते अज्ज परिभुंजामो, किं नु चित्ते वि से तहा? ||६|| सत्यशौचप्रकटानि, कर्माणि मया पुराकृतानि । : तान्यद्य परिभुजे, किन्नु चित्तोऽपि तानि तथा ? || ६ || पदार्थान्वयः–सच्च–सत्य, सोय—शौच, पगडा—प्रकर्षता से, कम्मा–कर्म, मए—मैंने, पुराकडा—पूर्व जन्म में किए, ते—उन कर्मों के फल को, अज्ज—आज, परिभुंजामो–सर्व प्रकार से भोगता हूं, किं—क्या, नु–वितर्क में, चित्ते वि—हे चित्त! तू भी, से—उन कर्मों के फल को, तहा—उसी प्रकार भोगता है। मूलार्थ—मैंने सत्य-शौच रूप जो कर्म पूर्व जन्म में किए थे उनका फल मैं आज सर्व प्रकार से भोग रहा हूं, हे चित्त! क्या तुम भी उसी प्रकार से फल भोग रहे हो? टीका–चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त चित्त मुनि से कहते हैं कि मैं पूर्व-जन्म में अर्जित किए हुए सत्य, शौचादि शुभ कर्मों का जो फल है उसको चक्रवर्ती सम्राट के रूप में आज प्रत्यक्ष रूप से भोग रहा हूं। क्या आप भी अपने पूर्वार्जित पुण्य कर्मों का फल नहीं भोग रहे हैं? ब्रह्मदत्त के प्रश्न का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मैंने पूर्व-जन्म में तप एवं संयम रूप शुभ कर्मों का अनुष्ठान किया था उसी प्रकार आपने भी तप-संयम आदि पुण्य कर्मों का भली-भांति संचय किया था। उन पुण्य-कर्मों के फल-स्वरूप जिस प्रकार आज मैं आनन्दोपभोग कर रहा हूं, उसी तरह आप क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि आप इस समय भिक्षु के रूप में दिखाई देते हो और मैं चक्रवर्ती हूं। तात्पर्य यह है कि मेरी और आपकी लौकिक सुख-समृद्धि में बहुत अन्तर है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 455 । चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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