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इसके अतिरिक्त चित्त मुनि ने आपस के वियोग का कारण जो निदान कर्म कहा है, अर्थात् . निदान-पूर्वक किया हुआ कर्म दोषपूर्ण होता है - इस प्रकार का जो कथन है, वह मुझे ठीक प्रतीत नहीं होता । इसी आशय से ब्रह्मदत्त कहते हैं कि 'हे चित्त ! यदि आपने कोई निदान नहीं किया, तो आपने मेरे से विशेषता क्या प्राप्त की? अथवा आप अपने पुराकृत कर्मों का फल अपनी इच्छा से मेरी तरह क्यों नहीं भोग रहे ? क्यों, उनका फल मूल से ही जाता रहा? अर्थात् आप तप का फल प्राप्त नहीं कर पाए। यही उक्त गाथा के चतुर्थ पाद का भाव है।
चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के इस कथन को सुनकर अब मुनि उसका उत्तर देते हैं-
सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । अत्थेहिं कामेहि य उत्तमेहिं, आया ममं पुण्णफलोववे ॥ १० ॥
सर्वं सुचीर्णं सफलं नराणां कृतेभ्यः कर्मभ्यो न मोक्षोऽस्ति । अर्थैः कामैश्चोत्तमैः, आत्मा मम पुण्यफलोपपेतः || १० || पदार्थान्वयः —– सव्वं —– सब, सुचिण्णं- अच्छे किये हुए कर्म, सफलं – सफल, नराणं - नरों का, — किए हुए, कम्माण — कर्मों को बिना भोगे, मोक्ख — मोक्ष, न अस्थि नहीं है, अत्थेहिं— से, य—और, उत्तमेहिं—उत्तम, कामेहि — काम - भोगों से, ममं — मेरा, आया— आत्मा, पुण-पुण्य के, फलोववेए- – फल से युक्त था ।
कडाण
इ-धन
मूलार्थ - मनुष्य के द्वारा किए हुए सब अच्छे कर्म अवश्य सफल होते हैं और किए हुए कर्मों को भोगे बिना मोक्ष नहीं होता तथा हे राजन् ! धन से और उत्तम काम भोगों से मेरी आत्मा भी पुण्यरूप फल से युक्त थी ।
टीका — मुनि कहते हैं कि हे राजन् ! किए हुए सभी पुण्य कर्म प्राणियों के लिए अवश्य ही शुभ फलदायक होते हैं और मानव के द्वारा जो कर्म किए गए हैं उनका फल भोगे बिना किसी जीव का छुटकारा भी नहीं हो सकता । धन और काम-भोगों से मेरी आत्मा भी पुण्यरूप फल से युक्त था । हे राजन्! जैसे तुम अपने आपको पुण्यरूप फल से युक्त मानते हो, वैसे ही मुझे भी फल से युक्त मानो, क्योंकि जो भौतिक समृद्धियां मानव को प्राप्त हैं वे सब तप का ही फल तो हैं, वैराग्य का आनन्द भी तप का ही फल है।
अब मुनि अपने विषय में इसी बात को स्पष्ट करते हैं
जाणासि संभूय! महाणुभागं, महिड्डियं पुण्णफलोववेयं । चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं!, इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया ॥ ११ ॥ जानासि संभूत ! महानुभागं, महर्द्धिकं पुण्यफलोपपेतम् । चित्रमपि जानीहि तथैव राजन् ! ऋद्धिर्द्युतिस्तस्यापि च प्रभूता ॥ ११ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 456 / चित्तसम्भूइज़्जं तेरहमं अज्झयणं