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________________ मूलार्थ—हम दोनों दशार्ण देश में दासों के रूप में, कालिंजर पर्वत पर मृगों के रूप में, मृतगंगा के तीर पर हंसों के रूप में और काशी की भूमि में चांडाल के रूप में उत्पन्न हुए थे । टीका - प्रस्तुत गाथा में आया हुआ 'आसी' यह क्रियापद 'आस्व' इस द्विवचनान्त क्रिया के स्थान में प्रयुक्त हुआ है और इसका चारों पदों के साथ सम्बन्ध है । मृतगंगा का अर्थ सर्वार्थसिद्धि टीका में इस प्रकार किया है— 'गंगाविंशतिपाथोधिं, वर्षे वर्षे पराध्वना । वाहस्तत्र चिरात्त्यक्तो, मृतगंगेति कथ्यते ।' अर्थात् गंगा नदी प्रत्येक बीस वर्ष के बाद अपना प्रवाह - स्थान बदल देती है, गंगा द्वारा परित्यक्त स्थान ही मृतगंगा कहलाता है। अब पांचवें और छठे भव का वर्णन करते हैं, यथा देवा य देवलोगम्मि, आसि अम्हे महिड्डिया | इमा णो छट्ठिया जाई, अन्नमन्नेण जा विणा ॥७॥ देवौ च देवलोके, आस्वाऽऽवां महर्द्धिकौ । इयमावयोः षष्ठिका जातिः, अन्योऽन्येन या विना ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः–देवा–देवता, य—– पुनः, देवलोगम्मि — देवलोक में, आसि― हुए, अम्हे हम दोनों, महिड्डिया — महाऋद्धि वाले, इमा – यह, णो— हम दोनों की, छट्टिया जाई - षष्ठिका जाति, अन्नमन्नेण - परस्पर के स्नेह से, जा— जो, विणा — रहित हुई । मूलार्थ - हम दोनों देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुए थे जो कि महान् समृद्धि वाले थे, परन्तु हमारी यह छठी जाति (जन्म) परस्पर के स्नेह से रहित क्यों हुई ? टीका - ब्रह्मदत्त कहते हैं कि देवलोक में भी हम दोनों समान ऋद्धि रखने वाले देव हुए और वहां पर भी हमारा परस्पर स्नेह - प्रेम बराबर बना रहा, परन्तु यह छठी जाति - छठा भव परस्पर स्नेहरहित —— पृथक्-पृथक् स्थानों में क्यों हुआ ? तात्पर्य यह है कि ऐसा होने का कारण क्या है? क्योंकि पांच जन्मों तक तो हमारा एक ही प्रकार का जन्म और एक ही प्रकार का सम्बन्ध चला आया और इस छठे भव में हमारा वियोग क्यों हुआ, इसका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए, परन्तु वह कारण क्या है, इसका मुझे ज्ञान नहीं । यही प्रस्तुत गाथा का भावार्थ है । अब उक्त शंका का समाधान करते हुए मुनि चित्त कहते हैंकम्मा नियाणप्पगडा, तुमे राय ! विचिंतिया । तेसिं फल-विवागेण, विप्पओगमुवागया ॥ ८ ॥ कर्माणि निदानप्रकृतानि त्वया राजन् ! विचिन्तितानि । तेषां फलविपाकेन, विप्रयोगमुपागतौ ॥ ८ || श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 454 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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