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महाजसो – महान् यश वाला, भायरं-भाई को, बहुमाणेणं - बड़े सम्मान से, इमं - इस प्रकार, वयणं — वचन, अब्बवी — कहने लगा ।
मूलार्थ–महान् समृद्धि वाला और महान् यशस्वी ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती अपने भाई को बड़े सत्कार से इस प्रकार कहने लगा ।
टीका – सज्जन पुरुषों के वार्तालाप में सभ्यता को कितना अधिक स्थान मिलता है यह इस गाथा से भली-भांति व्यक्त हो रहा है । यद्यपि चित्त का जीव इस समय संयम धारण किए हुए साधु-वृत्ति में स्थित है, तथापि पूर्वजन्म के भ्रातृ-भाव को लेकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती उनसे वार्तालाप करने प्रवृत्त हुए हैं।
ब्रह्मदत्त ने जो कुछ कहा, अब उसी का वर्णन करते हैंआसि मो भायरा दोवि, अन्नमन्नवसाणुगा अन्नमन्नमणुरत्ता, अन्नमन्नहिएसिणो ॥ ५ ॥ आस्व भ्रातरौ द्वावपि, अन्योऽन्यवशानुगौ । अन्योऽन्यमनुरक्तौ, अन्योऽन्यहितैषिणौ || ५ ||
पदार्थान्वयः — मोहम, भायरा – भाई, दोवि—दोनों ही, आसि— थे, अन्नमन्न – परस्पर, वसाणुगा—वशवर्ती, अन्नमन्नं – परस्पर, अणुरत्ता - प्रीति वाले, अन्नमन्न—परस्पर, ,हिएसिणो— हितैषी
थे ।
मूलार्थ- -हम दोनों भाई परस्पर वशवर्ती, परस्पर प्रीति रखने वाले और परस्पर हितैषी थे।
टीका - ब्रह्मदत्त ने कहा कि हे चित्त ! पिछले जन्म में हम दोनों भाई थे । वह भी कैसे कि एकदूसरे के वश में रहने वाले, एक-दूसरे से प्रीति रखने वाले और एक-दूसरे के हित - चिन्तक थे। यह है कि हम दोनों में किसी प्रकार के भी वैमनस्य को स्थान नहीं था ।
प्रस्तुत गाथा में ‘मो’ यह ‘वयं' के स्थान में आदेश रूप है, क्योंकि प्राकृत में द्विवचन नहीं होता । अब पूर्व जन्मों में साथ रहने का वर्णन करते हैं—
दासा दसणे आसी, मिया कालिंजरे नगे ।
हंसा मयंगतीरे य, सोवागा कासिभूमिए || ६ ||
दासौ दशार्णेषु आस्व, मृगौ कालिंजरे नगे । हंसौ मृतगंगातीरे, श्वपाकौ काशीभूम्यौ || ६ ||
पदार्थान्वयः – दसणे – दशार्ण देश में, दासा – दासों के रूप में, आसी— हुए, कालिंजरे नगे – कालिंजर पर्वत पर, मिया - मृग रूप में, मयंगतीरे—मृतगंगा के तीर पर, हंसा हंस रूप से, कासिभूमिए – काशी की भूमि में, सोवागा – श्वपाक – चांडाल रूप से हम उत्पन्न हुए ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 453 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झणं