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पदार्थान्वयः—कंपिल्ले–कांपिल्य नगर में, संभूओ—संभूत का जीव उत्पन्न हुआ, पुण—फिर, . चित्तो—चित्त का जीव, पुरिमतालम्मि—पुरिमताल नगर में, जाओ—उत्पन्न हुआ, सेट्टिकुलम्मिश्रेष्ठि-कुल में, विसाले विशाल में, धम्मं—धर्म को, सोऊण—सुनकर, पव्वइओ—दीक्षित हो गया।
मूलार्थ संभूत का जीव कांपिल्य नगर में उत्पन्न हुआ और पुरिमताल नगर के एक विशाल श्रेष्ठि-कुल में चित्त का जन्म हुआ। चित्त धर्म को श्रवण करके दीक्षित हो गए।
टीका—पंचनद—पंजाब देश के सुप्रसिद्ध कांपिल्य नगर में संभूत का जीव महारानी चुलनी के गर्भ से उत्पन्न होकर ब्रह्मदत्त नाम का बारहवां चक्रवर्ती हुआ और चित्त का जीव पुरिमताल नगर के सुप्रसिद्ध विशाल श्रेष्ठि-कुल में उत्पन्न हुआ, परन्तु इनमें से चित्त के जीव ने किसी महात्मा से धर्म का श्रवण करके संसार का परित्याग करते हुए दीक्षा अंगीकार कर ली। कारण कि धर्म के श्रवण करने से ही उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है, अतः श्रुत-ज्ञान को ही प्रायः सर्वत्र प्रधानता दी गई है। इसके अनन्तर क्या हुआ, अब इसी के विषय में कहते हैं
कंपिल्लम्मि य नयरे, समागया दो वि चित्तसंभूया। सुह-दुक्ख-फल-विवागं, कहेंति ते एक्कमेक्कस्स ॥ ३ ॥
काम्पिल्ये च नगरे, समागतौ द्वावपि चित्तसंभूतौ ।
सुख-दुख-फल-विपाकं, कथयतस्तावेकैकस्य || ३ || पदार्थान्वयः--कंपिल्लमि–कांपिल्य, नयरे–नगर में, य—पुनः, समागया—इकट्ठे हो गए, दो वि—दोनों ही, चित्तसंभूया चित्त और संभूत, सुह–सुख, दुक्ख–दुःख, फल, कर्म-फल के, विवागं—विपाक को, ते—वे दोनों, एक्कमेक्कस्स—परस्पर, कहेंति—कहने लगे।
___ मूलार्थ—कांपिल्य नगर में चित्त और संभूत दोनों भाई इकट्ठे हो गए और सुख-दुख रूप कर्मफल के विपाक को वे दोनों आपस में एक दूसरे से कहने लगे।
टीका प्रव्रजित होने के बाद चित्त का जीव और ब्रह्मदत्त नाम का चक्रवर्ती होने के बाद संभूत का जीव अर्थात् पूर्व जन्म के दोनों भाई कांपिल्यपुर के उद्यान में एकत्रित होकर पूर्व के जन्मों में अनुभव किए गए सुख-दुख और उनके विपाक के सम्बन्ध में वार्तालाप करने लगे। अब इसी विषय का उल्लेख करते हैं
चक्कवट्टी महिड्ढीओ, बंभदत्तो महाजसो । भायरं बहुमाणेणं, इमं वयणमब्बवी ॥ ४ ॥
चक्रवर्ती महर्द्धिकः ब्रह्मदत्तो महायशाः ।
भ्रातरं बहुमानेन, इदं वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः–चक्कवट्टी–चक्रवर्ती, महिड्ढीओ—महाऋद्धि वाला, बंभदत्तो—ब्रह्मदत्त,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 452 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं । ।