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मेरां तो इसमें कोई भी अपराध नहीं है। इस नगर के बाहर उद्यान में एक बड़े सौम्यमूर्ति महात्मा आए हुए हैं, उन्होंने ही इस श्लोक की पूर्ति की है, अर्थात् इस श्लोक के उत्तरार्द्ध की रचना करने वाले वे महात्मा हैं। मैंने इसकी पूर्ति उन्हीं से कराई है।
इस बात को सुनते ही चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त सावधान हो गए और अति प्रसन्नता में उस कृषक को मनमाना पारितोषिक देकर चतुरंगिणी सेना को लेकर अपने भ्राता के दर्शनार्थ नगर से बाहर निकले
और अति हर्ष के साथ उक्त उद्यान में पहुंचकर अपने पूर्व जन्म के भाई के दर्शन करके असीम हर्ष प्राप्त किया। इस प्रकार दोनों भ्राताओं के समागम से उनकी अन्तरात्मा को जो आनन्द प्राप्त हुआ वह अकथनीय था। इसके अनन्तर प्रेम-पूर्वक दोनों भाई उपस्थित जनता के मध्य में विराजते हुए अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त को आपस में कहने लगे, अर्थात् पारस्परिक सुख-दुःख की वार्ता करने लगे। प्रस्तुत प्रथम गाथा में ब्रह्मदत्तं के बारे में फरमाते हैं
जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि। चुलणीए बंभदत्तो, उववन्नो पउमगुम्माओ ॥ १ ॥ 'जाति-पराजितः खलु, अकार्षीत् निदानं तु हस्तिनापुरे।
चुलन्यां ब्रह्मदत्तः, उत्पन्नः पद्मगुल्मात् ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः खलु निश्चयार्थक है, जाई-पराजिओ—जाति से पराजित हुआ, तु-वितर्क में, हत्थिणपुरम्मि—हस्तिनापुर नगर में, नियाणं निदान, कासि—करता हुआ, चुलणीए—चुलनी की कुक्षि में, बंभदत्तो—ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती, पउमगुम्माओ—पद्मगुल्म विमान से च्यव कर, उववन्नो—उत्पन्न हुआ। - मूलार्थ—जाति से पराजित हुआ और हस्तिनापुर नगर में निदान करता हुआ रानी चुलनी की कुक्षि में पद्मगुल्म विमान से च्यव कर ब्रह्मदत्त नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ।
टीका चाण्डाल की जाति में अत्यन्त तिरस्कार होने से हस्तिनापुर में आकर चक्रवर्ती होने का ' 'जिसने निदान बांधा, वह सम्भूति मुनि फिर वहां से मरकर देवलोक में गया और वहां से च्यवकर अर्थात् नलिनी-गुल्मविमान से च्यवकर रानी चुलनी की कुक्षि से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ। .. यद्यपि पिछले भव में ये दोनों भाई चाण्डाल जाति में साथ ही उत्पन्न हुए थे, परन्तु निदान तो सम्भूति ने ही बांधा था, चित्त ने नहीं, इसलिए सम्भूति ने ही चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया।
अब पुनः उनके उत्पत्ति-स्थानों का वर्णन करते हैं. कंपिल्ले सम्भूओ, चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि ।
. सेट्टिकुलम्मि विसाले, धमं सोऊण पव्वइओ ॥ २ ॥
काम्पिल्ये संभूतः, चित्तः पुनर्जातः पुरिमताले । श्रेष्ठिकुले विशाले, धर्मं श्रुत्वा प्रव्रजितः || २ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 451 / चित्तसम्भूइज्जं तेरहमं अज्झयणं