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व–वा, रयं-कर्म-रज को, जहासि—छोड़ते हो, णे हमको, संजय हे संयत! जक्खपूइया हे . यक्ष-पूजित! आइक्ख–सुनाएं, भवओ—आपके, सगासे—समीप से, नाउं—जानने को, इच्छामो–चाहते हैं।
मूलार्थ हे संयत! हे यक्षपूजित ! आप का जलाशय अर्थात् सरोवर कौन-सा है? और कौन सा शान्ति-रूप तीर्थ है? आप किस स्थान पर स्नान करते हुए कर्म-रूप मल को छोड़ते हैं? हम आपसे यह जानना चाहते हैं, आप हमारे प्रति कहें। ___टीका—यहां पर ब्राह्मणों ने ऋषि से तीन बातें पूछी हैं, जलाशय, शान्ति-रूप तीर्थ और स्नान करने का स्थान । वास्तव में ये तीनों बातें एक ही प्रश्न के अन्तर्गत हैं, अर्थात् जलपूर्ण वह तीर्थ स्थान कौनसा है कि जिसमें स्नान करने से आत्मा में लगा हुआ कर्म-मल धुल जाता है।
ब्राह्मणों के इस प्रश्न का यह भी आशय है कि प्रथम मुनि ने उनके प्रति यह कहा था कि तुम लोग दोनों समय पानी का स्पर्श करते हो और इसके द्वारा शुद्धि की गवेषणा करते हो, परन्तु कुशल . व्यक्तियों ने इस बाह्य-शुद्धि को उचित नहीं बताया, क्योंकि यह अन्तरंग-शुद्धि में कारणभूत नहीं है। इस पर वे ब्राह्मण लोग उक्त मुनि से प्रश्न करते हैं कि कृपा करके आप ही हमें बताएं कि आपका स्नान करने का तालाब कौन सा है? और किस प्रकार के स्नान से आन्तरिक शुद्धि की प्राप्ति होती है? तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बाह्य सरोवर आदि के जल में स्नान करने से शरीर का मल दूर होकर उसकी शुद्धि होती है, उसी प्रकार की आन्तरिक शुद्धि के लिए किस प्रकार के जल का उपयोग करना चाहिए, जिससे कि कर्म-रूप मल दूर हो जाता है। इत्यादि। इन उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुनि ने जो कुछ कहा, अब उसी का वर्णन कस्ते हैं
धम्मे हरए बम्भे संति-तित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पजहामि दोसं॥४६॥
धर्मो हृदो ब्रह्म शान्ति-तीर्थं, अनाविलमात्म-प्रसन्नलेश्यम् ।,
यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः, सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ॥ ४६॥ पदार्थान्वयः-धम्मे—धर्म, हरए—ह्रद अर्थात् तालाब है, बंभे–ब्रह्मचर्य, संति-तित्थे— शान्तितीर्थ है, अणाविले—कलुष-भाव से रहित, अत्तपसन्नलेसे—आत्मा प्रसन्न लेश्या है, जहिं जिसमें, सिणाओ-स्नान किया हुआ, विमलो—मल से रहित और, विसुद्धो विशुद्ध हो जाता है, सुसीइभूओ—अत्यन्त शीतल होकर, दोसं—कर्म-दोष को, पजहामि—भली-भांति छोड़ता हूं। ___ मूलार्थ धर्म-रूप तालाब है, ब्रह्मचर्य ही शांति-तीर्थ है और कलुषभाव-रहित आत्मा प्रसन्न लेश्या है जिसमें स्नान किया हुआ आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो जाता है, इस प्रकार मैं अत्यन्त शीतल होकर दोषों को छोड़ता हूं।
टीका—इस गाथा में ब्राह्मणों के प्रश्नों का उत्तर मुनि ने दृष्टान्त और दार्टान्त भाव से दिया है,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 444 | हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं