________________
उत्तर—शरीर ।
प्रश्न-यज्ञ के लिए समिधा कौन-सी हैं ?
उत्तर - शुभाशुभ कर्म ।
प्रश्न – शान्ति पाठ कौन-सा है ?
उत्तर—संयम व्यापार ।
प्रश्न- किस हवन से अग्नि को प्रसन्न करते हो ?
उत्तर - उक्त प्रकार के हवन से अग्नि को प्रसन्न करते हैं जो ऋषियों के लिए प्रशस्त है । इस प्रश्नोत्तर माला का तात्पर्य इस प्रकार है- प्रथम तप 'ज्योति, अर्थात् अग्नि बताया गया है, उसका आशय यह है कि तप में कर्म-मल को भस्म कर देने की शक्ति है और वह तप जीव के आश्रित है, इसलिए उस तप रूप अग्नि का स्थान जीव है एवं मन, वचन और काय योग को खुवा कहने का तात्पर्य यह है कि शुभाशुभ कर्मों का आगमन इन्हीं के द्वारा होता है। जिस प्रकार मधु-घृत आदि चरु के प्रक्षेप से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार शरीर में ही यह तप रूप अग्नि प्रदीप्त होती है, अतः शरीर को करीषांग बताया गया है। यहां पर समिधा के स्थानापन्न कर्म हैं, अर्थात् जैसे अग्निकुण्ड में शमी, पलाश आदि की लकड़ियां डालने से वे भस्म हो जाती हैं उसी प्रकार तप रूप अग्नि में कर्म-रूप इंधन भस्म हो जाते हैं और संयम - व्यापार से ही सर्व जीवों को शान्ति मिलती है, अतः प्रस्तुत यज्ञ में वही शांन्ति - पाठ है । इस प्रकार उक्त यज्ञ की सारी ही उपकरण-सामग्री का वर्णन कर दिया गया है।
यहां पर 'होमेन' के स्थान पर जो 'होमं' पाठ दिया गया है, वह विभक्ति - व्यत्यय से जानना ।
यही हवन ऋषियों के लिए प्रशस्त है। इस कथन से प्रतीत होता है कि उक्त प्रकार की हवन विधि केवल त्यागी ऋषियों के लिए ही प्रतिपादन की गई है और गृहस्थों के लिए तो केवल पशुवध जिनमें हो, ऐसे यज्ञों का निषेध है ।
इस प्रकार मुनि के उत्तर से यज्ञ के स्वरूप का निश्चय करके अब ब्राह्मण लोग स्नानादि क्रिया के विषय में पूछते हैं, यथा
के हर ? के य ते संति - तित्थे ? कहिं सिणाओ व रयं जहासि ? आइक्ख णे संजय! जक्खपूइया! इच्छामु नाउं भवओ सगासे ॥ ४५ ॥
कस्ते हृदः ? किं च ते शान्ति - तीर्थं ? कस्मिन् स्नातो वा रजो जहासि ? आख्याहि नः संयत! यक्षपूजित ! इच्छामो ज्ञातुं भवतः सकाशे ॥ ४५ ॥
पदार्थान्वयः –—–— के—–— कौन सा ते तुम्हारे, हरए— जलाशय है, य— और, के—कौन सा
ते तुम्हारा, संति - तित्थे—– शान्ति तीर्थ है, कहिं – किस स्थान पर, सिणाओ - स्नान करते हुए,
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 443 / हरिएसिज्जं बारहं अज्झयणं